________________
१२४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य नहीं है। अतः लोक को लोकाकाश और अलोक को अलोकाकाश भी कहा गया है। विचारणीय विषय लोक ही है क्योंकि लोक में ही सृष्टि पाई जाती है। लोक को ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक के भेद से तीन भागों में विभक्त किया गया है। ऊर्ध्वलोक में मुख्यरूप से उच्च श्रेणी के देवताओं का निवास है। अधोलोक में मुख्यरूप से नारकियों का तथा निम्न श्रेणी के देवताओं का निवास है। मध्यलोक में मुख्यरूप से मनुष्यों और तिर्यञ्चों का निवास माना गया है। इसके अतिरिक्त लोक के उपरितम भाग में मुक्तात्माओं का निवास माना गया है। इन तीनों लोकों की तुलना में मध्यलोक की सीमा बहत स्वल्प होने पर भी बहत विशाल है। इसके अतिरिक्त मध्यलोक के बहुत ही छोटे भाग में मनुष्य-क्षेत्र की रचना है जो एक ही प्रकार की ढाई-द्वीपों में बतलाई गई है। इस तरह यह लोक एक सुनियोजित शृंखला से बद्ध है जिसके सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है क्योंकि हमारी पहुँच मनुष्यक्षेत्र के बहुत ही स्वल्प-क्षेत्र तक ही है। इसीसे हम इस लोक एवं लोकालोक की सीमा की मात्र कल्पना कर सकते हैं।
२. लोक की रचना के मूल में जिन छ: द्रव्यों को स्वीकार किया गया है उनकी संख्या छ : ही क्यों है ? सात या आठ, एक या दो क्यों नहीं है ? इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया गया है। यद्यपि ग्रन्थ में निहित तथ्यों के आधार से यह भी कहा जा सकता है कि द्रव्यों की संख्या दो है : चेतन और अचेतन । चेतन और अचेतन इन दो द्रव्यों की कल्पना से सृष्टि की व्याख्या स्पष्ट नहीं होती थी क्योंकि इसका कोई नियामक ईश्वर विशेष नहीं माना गया था। सामान्यतया अन्य दर्शनों में सृष्टि के नियामक एक ईश्वर द्रव्य की कल्पना की जाती है परन्तु उत्तराध्ययन में ईश्वर को नियन्ता मानना अभिप्रेत नहीं था क्योंकि ईश्वर जब सर्वशक्तिसम्पन्न और दयालु है तो फिर जीवों को कष्ट देने के लिए सष्टि क्यों की गई ? इसके अतिरिक्त ऐसा मानने पर ईश्वर का दर्जा बहुत नीचा हो जाता है और व्यक्ति का स्वातन्त्र्य भी समाप्त हो जाता है। अतः ईश्वर तत्त्व को स्वीकार न करके
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org