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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[ १११ होती है। आयु की अपेक्षा से नारकी जीव भी देवों के समान आयु वाले होते हैं। इसके अतिरिक्त देवों को अमर नहीं माना गया है। देवों का निवास सिर्फ ऊर्ध्वलोक में ही नहीं है अपितु मध्य और अधोलोक में भी उनका निवास है। अतः ग्रन्थ में 'देव-गति' नामक एक कर्म विशेष स्वीकार किया गया है जिसके उदय से जीव को देव-पर्याय की प्राप्ति होती है। इन देवों को प्रमुखरूप से चार भागों में विभक्त किया गया है२-१. भवनवासी (भवनपति), २. व्यन्तर (स्वेच्छाचारी ), ३ ज्योतिषी (सूर्यादि) तथा ४. वैमानिक (विशेष पूजनीय )। इनके अवान्तर प्रमुख २५ भेद किए गए हैं। इकतीसवें अध्ययन में जिन २४ प्रकार के देवों ( रूपाधिक देवों )४ की संख्या का उल्लेख किया गया है वे मेरी समझ से प्रसिद्ध २४ जैन तीर्थङ्कर ही हैं। टीकाकारों ने वैमानिक देवों का एक भेद मानकर भवनवासी आदि २४ देवों को भी गिनाया है ।५।।
भवनवासी देव-भवनों ( महलों ) में रहने एवं उनके स्वामी होने के कारण इन्हें भवनवासी' या 'भवनपति' कहते हैं। आहारविहार, वेषभूषा आदि राजकुमारों की तरह होने के कारण इन्हें 'कुमार' शब्द से अभिहित किया जाता है। इनकी प्रमुख १० जातियां हैं-१. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, १. देखिए-प्रकरण २, कर्म-विभाजन । २. देवा चउन्विहा वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज वाणमंतर जोइस वेमाणिया तहा ।।
-उ० ३६. २०३. तथा देखिए-उ० ३४. ५१. . ३. दसहा उ भवणवासी अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया दुविह। वेमाणिया तहा ॥
-उ० ३६. २०४. ४. रूवाहिएसु सुरेसु य ।
-उ० ३१.१६. ५. उ० आ० टी०, पृ० १३९६; उ० ने० वृ०, पृ० ३४८.
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