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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
देव- सामान्यतः पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए जीव देवपर्याय को प्राप्त करते हैं ।' पुण्य कर्मों के प्रभाव से मनुष्यपर्याय की और खोटे तपादि के प्रभाव से देव- पर्याय की भी प्राप्ति होती है । जो खोटे तपादि के प्रभाव से देव - गति को प्राप्त करते हैं वे बहुत ही निम्न श्रेणी के देव कहलाते हैं । संभवतः उनकी स्थिति मनुष्यों से भी बदतर होती है । अत: सर्वसामान्य देवों की परिभाषा इन शब्दों में दी जा सकती है: 'जो उपपाद-जन्म वाले तथा जन्म से ही इच्छानुकूल शरीर धारण करने की सामर्थ्य ( वैक्रियकशरीरधारी) वाले स्त्री और पुरुष हैं वे देव कहलाते हैं ।' यद्यपि मनुष्य भी तपादि के प्रभाव से वैक्रियक- शरीर धारण कर सकते हैं परन्तु जन्म से नहीं । यद्यपि नारकी जीव उपपाद - जन्म वाले तथा जन्म से ही वैक्रियक शरीरधारी होते हैं परन्तु वे नपुंसक ही होते हैं । इस तरह ' उपपाद - जन्म वाले ( सोते से जागते हुए की तरह जो पलङ्ग पर से उठ खड़े होते हैं ) स्त्री-पुरुष' ऐसा लक्षण भी देवों का कर सकते हैं क्योंकि मनुष्यों और तिर्यञ्चों का उपपाद - जन्म नहीं होता है तथा नारकी उपपाद- जन्म वाले होकर भी स्त्री-पुरुष नहीं होते हैं । ऐश्वर्य, आयु, अजरता, निवास क्षेत्र आदि के आधार पर देवों का स्वरूप वर्णित नहीं किया जा सकता है क्योंकि मनुष्यों आदि में भी उत्कृष्ट ऐश्वर्य आदि पाया जाता है तथा कुछ निम्न जाति के देवों की स्थिति बहुत ही बदतर
१. धीरस्स पस्स धीरत सव्वधम्माणुवत्तिणो ।
चिच्चा अधम्मं धम्मिट्ठे देवेसु उववज्जई ||
- उ० ७.२६
तथा देखिए - उ० ७.२१, २६; ५.२२, २६-२७. २. परमाहम्मिएसु ं य ।
- उ० ३१.१२.
यहाँ पर परमधार्मिक देवों को गिनाने से स्पष्ट है कि कुछ देव निम्न श्रेणी के भी होते हैं । अत: कहा भी है : 'एता भावना भावयित्वा देवदुर्गति यान्ति ततश्च च्युताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरमनन्तम् ।' देखिए - उ० आ० टी०, पृ० १८०६-१८१२.
३. देखिए - पृ० १०४, पा० टि० १.
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