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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र
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करने के पूर्व आवश्यक है कि सभी मान्य मूलसूत्रों का प्रथमतः संक्षिप्त परिचय दिया जाय ।
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उत्तराध्ययन- यह एक धार्मिक श्रमण काव्य-ग्रन्थ है । इसमें नवदीक्षित साधुओं के सामान्य आचार-विचार आदि का वर्णन किया गया है । कहीं-कहीं जैनदर्शन के सामान्य मूलभूत सिद्धान्तों की चर्चा की गई है । इसका विशेष विचार आगे किया जाएगा २. दशवैकालिक - यह भी उत्तराध्ययन की ही तरह आचारधर्म का प्रतिपादक धार्मिक श्रमण-काव्य है । इसमें विनय, नीति, उपदेश और सुभाषितों की प्रचुरता है। कुछ अध्ययन और गाथाएं उत्तराध्ययन और आचाराङ्ग से साम्य रखती हैं ।" इसके रचयिता शय्यंभव ( ई० पू० ४५२ - ४२६ ) हैं । भद्रबाहु की नियुक्ति के अनुसार 'इसका चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पाँचवां कर्मप्रवाद पूर्व से, सातवां सत्यप्रवाद पूर्व से और बाकी के प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व के तीसरे अधिकार ( वस्तु ) से लिए गए हैं । 3 कालान्तर में इस पर विपुल टीकासाहित्य लिखा गया । भाषा और विषय की दृष्टि से यह भी उत्तराध्ययन की तरह प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है । ३. आवश्यक नंदीसूत्र के वर्गीकरण के अनुसार पहले यह छः स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में था । परन्तु अब यह एक ही ग्रन्थ के रूप में विद्यमान है। इसमें साधु की छः नित्य क्रियाओं (आवश्यक) का वर्णन किया गया है । इस पर भी कालान्तर में विपुल टीकासाहित्य लिखा गया । ४. पिण्डनिर्युक्ति - यह दशवैकालिक सूत्र के 'पिण्डेषणा' नामक ५ वें अध्ययन पर लिखी गई भद्रबाहु की रचना है । विस्तार एवं महत्त्व के कारण इसे पृथक् ग्रन्थ के रूप में माना
१. जै० सा० बृ० इ०, भाग - २, पृ० १८१; हि० के० लि० जै०, पृ० १५६.
२. प्राचीन काल में समस्त श्रुतज्ञान १४ पूर्व-ग्रन्थों में अन्तर्निहित था । उनके नाम इस प्रकार हैं- उत्पाद, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, समयप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्य, प्राणावाय, क्रियाविशाल और बिन्दुसार । ३. दशवैकालिक - नियुक्ति, गाथा १६-१७.
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