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१.० ] उत्तराध्ययन : सूत्र एक परिशीलन . जाता है। पिण्ड का अर्थ है-भोजन। इसमें साध के भोजनविषयक सिद्धान्त की चर्चा की गई है। इसमें वर्णित साधु के भोजनसम्बन्धी नियमों से कई महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। ५. ओघनिर्यक्ति-ओघ का अर्थ है-सामान्य । इसमें साधु के सामान्य आचार-विचार का ही दृष्टान्तशैली में वर्णन है। इसमें श्रमणसंघ के इतिहास की झलक मिलती है। बीच-बीच में कथाएँ भी हैं। यह भी पिण्डानियुक्ति की तरह भद्रबाहु की ही रचना है। ६-७ नंदी और अनुयोगद्वार - ये दोनों ग्रन्थ आगमों के लिए परिशिष्ट का काम . करते हैं। अतः इन्हें चलिकासूत्र कहा जाता है। आगमों के अध्ययन के लिए ये प्राथमिक भूमिका का भी कार्य करते हैं । नंदी में विशेषकर ज्ञान की चर्चा की गई है और अनुयोगद्वार में मूल भत सिद्धान्तों और पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है। नंदी' दृष्यगणि के शिष्य देववाचक की तथा 'अनुयोगद्वार' आर्यरक्षित की कृति है। ये महावीर-निर्वाण के बहुत बाद में लिखी गई थीं। ८ पाक्षिकसूत्र - इसमें साधु के पाक्षिक प्रतिक्रमण ( आवश्यक का एक भेद ) का वर्णन किया गया है। ६. . दशवकालिकचलिकाएँ ये वास्तव में दशवैकालिक के ही अंश के रूप में हैं। अतः इन्हें पृथक् गिनाना उचित नहीं है। इनमें संसार के प्रति रागभावना का त्याग तथा साधुओं को मद्य-मांस आदि के त्याग का उपदेश देकर कर्तव्य-कर्म करने का उपदेश दिया गया है ।
इस तरह इन संभाव्य मूलसूत्रों का संक्षिप्त परिचय देखने से मूलसूत्र शब्द का अर्थ यद्यपि स्पष्ट नहीं होता है फिर भी अन्य अंगबाह्य ग्रन्थों की अपेक्षा इनमें मूलरूपता, प्रामाणिकता और उपयोगिता को ध्यान में रखा गया है। वास्तव में उत्तराध्ययन, दशवकालिक और आवश्यक' को मूलसूत्र मानना उपयुक्त है क्योंकि ये प्राचीन भी हैं तथा साधु-जीवन के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रामाणिक प्रति. १. आचार्य तुलसी का यह कयन (द० उ०, भूमिका, पृ० ७) कि अङ्गबाह्य
आगम ग्रन्थों के आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त इन दो विभागों में आवश्यक का अपना स्वतन्त्र व महत्त्वपूर्ण स्थान होने से 'आवश्यक' को मूलसूत्रों की संख्या में सम्मिलित करने का कोई हेतु प्रस्तुत नहीं है - ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान परम्परा में जो अङ्गबाह्य
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