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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [११ पादन भी करते हैं। अन्य ग्रन्थों को जो मूलसूत्रों में गिना जाने लगा है वह या तो उनके महत्त्व को प्रकट करने के कारण या मूल आगम-ग्रन्थों से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण है। जैसे-पिण्डनियुक्ति दशवकालिक से और ओघनियुक्ति आवश्यकनिक्ति से सम्बन्धित होने से, पाक्षिकसूत्र आवश्यक का ही एक अंग होने से, दशवैकालिकचलिकाएँ दशवैकालिक के ही अंशरूप होने से तथा नंदी और अनुयोगद्वार के समस्त आगमग्रन्थों की विश्लेषणरूप भूमिका होने से इन्हें मूलसूत्रों के साथ जोड़ा गया है। इस तथ्य की पुष्टि के पूर्व मूलसूत्र के विषय में विभिन्न विद्वानों के मतों का पर्यवेक्षण आवश्यक है।
१. जार्ल शान्टियर ने महावीर के शब्द होने से इन्हें मूलसूत्र कहा है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि महावीर के शब्द होने के नाते आचारांग आदि को ही मूल संज्ञा दी जा सकती है, अंगबाह्य को नहीं। इसके अतिरिक्त अंग और अंगबाह्य
ग्रन्थों को छेदसूत्र, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि भागों में बाँटा जाता है उनमें से आवश्यक को किस विभाग में रखा जाएगा ? आवश्यक के महत्त्वपूर्ण होने के कारण मूलसूत्र में ही रखना उचित है। अन्य विभागों में रखा नहीं जा सकता। अत: या तो इसे मूलसूत्र विभाग में ही रखा जाए या फिर अन्य प्रकार से विभाग की कल्पना की जाए । आचार्य तुलसी ने (द० उ०, भूमिका, पृ० ६) मूलसूत्र कहे जाने के कारण को बतलाते हुए लिखा है-'आचार की जानकारी के लिए आचारांग मूलभूत था, वैसे ही दशवैकालिक भी आचारज्ञान के लिए मूलभूत बन गया। संभव है, आदि में पढ़े जाने के कारण तथा मुनि की अनेक मूलभूत प्रवृत्तियों के उद्बोधक होने के कारण इन्हें मूलसूत्र की संज्ञा दी गई।' इससे भी स्पष्ट है कि 'आवश्यक' मुनि की आवश्यक क्रिया का प्रतिपादक होने के नाते क्यों नहीं मूलसूत्र
कहा जाएगा? 1. ......Mala in the sense of 'original text', and perhaps
not so much in opposition to the later abridgments and commentaries as merely to denote the actual words of Mahavira himself.
-उ० शा०, भूमिका, पृ० ३२
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