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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
से धर्म में रुचि बढ़े ऐसी पतिव्रता या ब्रह्मचारिणी स्त्री की कथा कही जा सकती है परन्तु ऐसी कथा भी एकान्त में नहीं कहना चाहिए क्योंकि कभी-कभी उसका विपरीत प्रभाव भी संभव होता है ।
३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठने का त्याग - स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठकर कथा, वार्तालाप, परिचय आदि करने से कामपीड़ा उत्पन्न हो सकती है । अतः ब्रह्मचारी को स्त्रियों के साथ परिचयादि न बढ़ाकर उनके साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए ।' वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने पूर्व - परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है कि जिस स्थान पर कोई स्त्री बैठ चुकी हो उस स्थान पर उसके उठने के समय से लेकर एक मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए क्योंकि तत्काल वहां पर बैठने से शंका आदि दोष होने की संभावना रहती है ।
४. रागपूर्वक स्त्रियों के रूपादि दर्शन का त्याग - स्त्रियों के अङ्गों ( मस्तकादि), प्रत्यङ्गों (कुच, कुक्षि आदि), संस्थानों (कटिप्रदेश आदि ) तथा नाना प्रकार की मनोहर मुद्राओं को देखने से चक्षुराग उत्पन्न होता है | अतः ब्रह्मचारी को चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत स्त्रियों के रूपादि का दर्शन नहीं करना चाहिए । चक्षु का स्वभाव है - देखना । अतः इस प्रकार के प्रसङ्ग उपस्थित होने पर वीतरागतापूर्वक शुभ-ध्यान करना चाहिए । स्त्रियों के रूप - लावण्य में पुरुष को
१. हा खलु नो निग्गंथे इत्थीहि सद्धि सन्नि सेज्जागए विहरेज्जा | - उ० १६.३.
तथा देखिए - उ० १६.३ (गद्य), ११. २. उत्थितास्वपि तासु मुहूर्त्त तत्र नोपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः ।
३. अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं ।
- वही, ने० वृ०, पृ० २२०.
भररओ थीणं चक्खु गिज्झं विवज्जए ||
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- उ० १६.४.
तथा देखिए - उ० १६.४ ( गद्य), ११३२.१४-१५; ३५.१५. ४, इत्थोजणस्सारियज्ञाणजुग्गं ।
—उ० ३२.१५,
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