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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
संभव नहीं है क्योंकि प्रायः सभी अध्ययनों में सैद्धान्तिक चर्चा आदि का सम्मिश्रण है । उपर्युक्त जिन अध्ययनों की गाथा - संख्याएँ दी गई हैं वे आत्मारामजी के संस्करण के आधार पर दी गई हैं । वहअन्यत्रकहीं-कहीं २-३ संख्याओं का अन्तर पाया जाता है । परन्तु कोई खास महत्त्वपूर्ण नहीं है । इन अध्ययनों में आपस में यद्यपि कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है परन्तु कुछ टीकाकारों ने उनमें सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की है ।
रचयिता एवं रचनाकाल :
उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक व्यक्ति के द्वारा किसी एक काल में लिखी गई रचना नहीं है अपितु यह एक संकलन -ग्रन्थ है । शुद्ध
में दुर्गति में न ले जानेवाले कर्म के विषय में कोई प्रश्न पूछता है तो कपिल ऋषि उसका उत्तर देते हैं, ऐसा अंतिम गाथा से सूचित होता है । यह संभव है कि उन्होंने जो उपदेश दिया है वह उनके जीवन से सम्ब न्धित हो और टीकाकारों ने उसे अपना लिया हो । अथवा इसका पूर्वरूप अन्य रहा हो । शार्पेन्टियर ने भी अपनी उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ० ४४ में उपर्युक्त तथ्य को ही स्वीकार किया है ।
सम्यक्त्व - पराक्रम में यद्यपि प्रश्नोत्तर-शैली है परन्तु वह शुद्ध सैद्धान्तिक व वर्णनात्मक ही है। एलक-अध्ययन में बकरे के दृष्टान्त की प्रमुखता होने से उसे आख्यानात्मक कहा जा सकता है । परन्तु वास्तव में वहाँ प्रधानता नीति एवं उपदेश की ही है । जहाँ तक यज्ञीयअध्ययन का प्रश्न है, उसमें स्पष्टरूप से दो ब्राह्मणों का संवाद है । अत: उसे आख्यानात्मक विभाग में रखना ही उचित है। आचार्य तुलसी (उत्तरज्झयणाणि, भाग -१, भूमिका, पृ०१ ) ने उत्तराध्ययन के अध्ययनों का विभाजन इस प्रकार किया है :
१. धर्मकथात्मक १४ अध्ययन हैं - ७ से ६, १२ से १४, १८ से २३, २५, २७.
२. उपदेशात्मक ६ अध्ययन हैं - १, ३ से ६, १०.
३. आचारात्मक & अध्ययन हैं - २, ११, १५ से १७, २४, २६, ३२, ३५.
४. सैद्धान्तिक ७ अध्ययन हैं- २५ से ३१, ३३-३४, ३६.
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