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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ २५ हो गया है। उत्तराध्ययन के इन ३६ अव्ययनों में से कुछ अध्ययन शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का, कुछ धम्मपद की तरह उपदेशात्मक साधु के आचार एवं नीति का और कुछ कथा एवं संवाद के द्वारा साधु के आचार का ही प्रतिपादन करते हैं। मोटेरूप से निम्न विभाजन संभव है :
(अ) शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक अध्ययन-२४वाँ समितीय, २६वां सामाचारी, २८वाँ मोक्षमार्गगति, २६वाँ सम्यक्त्व-पराक्रम, ३०वाँ तपोमार्ग, ३१वां चरणविधि, ३३वाँ कर्मप्रकृति, ३४वाँ लेश्या और ३६वाँ जीवाजीवविभक्ति। इनके अतिरिक्त दूसरे और सोलहवें अध्ययन का गद्य-भाग।
.(ब) नीति एवं उपदेशप्रधान अध्ययन-१ला विनय, २रा . परीषह, ३रा चतुरङ्गीय, ४था असंस्कृत, ५वाँ अकाममरण, ६ठा क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय, ७वाँ एलय, दवाँ कापिलीय, १०वा द्रुम-पत्रक, ११वाँ बहुश्रुतपूजा, १५वाँ सभिक्षु, १६वाँ ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान का पद्यभाग, १७वाँ पापश्रमणीय, २७वाँ खलुङ्कीय, ३२वाँ प्रमादस्थानीय और ३५वाँ अनगार ।
(स) आख्यानात्मक अध्ययन -हवाँ नमिप्रव्रज्या, १२वाँ हरिकेशीय, १३वाँ चित्तसंभूतीय, १४वाँ इषुकारीय, १८ वाँ संजय (संयतीय), १९वाँ मृगापुत्रीय, २०वाँ महानिर्ग्रन्थीय, २१वाँ समुद्रपालीय, २२वाँ रथनेमीय, २३वाँ केशिगौतमीय और २५ वाँ यज्ञीय।
इस तरह ऊपर जिन अध्ययनों का विभाजन किया गया है वह .. प्रधानता की दृष्टि से है।' अन्यथा इस प्रकार का विभाजन १. डा० नेमिचन्द्र ने अपने प्राकृत भाषा और साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास (पृ० १९३) में यज्ञीय-अध्ययन को इस विभाग में नहीं गिनाया है और कापिलीय को इस विभाग में गिनाया है। उत्तराध्ययन की टीकाओं में कपिल-ऋषि की कथा मिलती है जिसकी पुष्टि उत्तराध्ययन के कुछ पद्यों से होती है। इस अध्ययन में आख्यान की उतनी प्रधानता नहीं है जितनी उपदेश की प्रधानता है। क्योंकि इस अध्ययन के प्रथम पद्य
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