________________
२४ ] . उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . विषय' का ही आगे की गाथाओं में विस्तार हुआ है। इसमें मनोज्ञामनोज्ञ विषयों की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों की वृत्ति को हटाने का मुख्यरूप से उपदेश दिया गया है।
३३. कर्मप्रकृति-इसमें २५ गाथाएँ हैं। कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं (प्रकृतियों) का वर्णन होने से इसका नाम कर्मप्रकृति रखा गया है।
३४. लेश्या-इसमें ६१ गाथाएँ हैं। कर्मों की स्थिति में विशेषरूप से सहायक लेश्याओं का वर्णन होने से इसका नाम लेश्या-अध्ययन है।
३५. अनगार-अनगार का अर्थ है- गृहत्यागी साधु । इसकी २१ गाथाओं में साधु के गुणों का वर्णन है अतः इसका नाम 'अनागार' रखा गया है।
३६. जीवाजीवविभक्ति-इसमें चेतन (जीव) और अचेतन (अजीव) का सविस्तार वर्णन होने से इसका नाम जीवाजीवविभक्ति रखा गया है। इसमें २६६ गाथाएँ हैं और यह सबसे बड़ा अध्यय। है। अध्ययन के अन्त में समाधिमरण (सल्लेखना) का भी वर्णन है। इसकी अन्तिम गाथा में उत्तराध्ययन को भगवान महावीर का अन्तिम उपदेश कहा है और ग्रन्थ के अध्ययनों की ३६ संख्या का संकेत किया है।
इस तरह इन अध्ययनों में मुख्यरूप से संसार की असारता तथा साध के आचार का वर्णन किया गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन का धर्मकथानुयोग में परिगणन किया गया है। परन्तु इस में आचार का प्रतिपादन होने से चरणानयोग का और दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन होने से द्रव्यानुयोग का भी मिश्रण १. जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाई। न यामणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ॥
-उ० ३२. २१. २. अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः।
2 -उ० चूणि, पृ० १. .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org