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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [२३ विकास का वर्णन किया गया है। यह पूरा अध्ययन गद्य में है। दूसरे और सोलहवें अध्ययन की तरह 'सुयं मे आउसं तेण भगवया' आदि गद्यांश अध्ययन के प्रारम्भ में पुनरावृत्त है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्यक्त्व-रूप होने से इसका नाम 'सम्यक्त्व-पराक्रम' रखा गया है। समवायांग में इसका नाम 'अप्रमाद' है। परन्तु प्रकृतग्रन्थ में इस अध्ययन का नाम स्पष्ट रूप से सम्यक्त्व-पराक्रम ही मिलता है।' इससे प्रतीत होता है कि संभवतः यह अध्ययन लुप्त हो गया हो जो बाद में गद्य-खण्ड में लिखा गया हो। इसमें वर्णित ७३ प्रश्नोत्तरों का वर्णन न्यूनाधिकरूप से भगवतीसूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) में भी मिलता है ।
३०. तपोमार्ग-इसमें तपश्चर्या का वर्णन होने से इसका नाम तपोमार्ग है । इसमें ३७ गाथाएँ हैं ।
३१. चरणविधि-इसमें १-३३ की संख्या को माध्यम बनाकर क्रमशः साधु के चारित्र और ज्ञान से सम्बन्धित कुछ सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। प्रथम गाथा में चारित्र की विधि के वर्णन की प्रतिज्ञा होने से इसका नाम 'चरणविधि' रखा गया है । समवायांग और स्थानांगसूत्र में भी इसी प्रकार संख्या-गणना द्वारा जैन-सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। उत्तराध्ययन में मात्र सिद्धान्तों का संकेत है जबकि समवायांग आदि में विस्तृत वर्णन । इसकी २१ गाथाओं में से ७-२० के अन्तिम दो चरण ज्यों के त्यों पुनरावृत्त हैं। तीसरे से छठे पद्य में तीसरे चरण की मात्र क्रिया में परिवर्तन है, शेष अन्तिम दो चरण पूर्ववत् पुनरावृत्त हैं । - ३२. प्रमादस्थानीय-इन्द्रियों की राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति को प्रमादस्थानीय मानकर इस अध्ययन का नाम प्रमादस्थानीय रखा गया है। इसमें १११ गाथाएँ हैं। इसकी २१वीं गाथा में वर्णित
१. इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेण भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइए जं सम्म "।
-उ० २६ का प्रारम्भिक तथा ७४ वां गद्यांश । २. से० बु० इ०, भाग-४५, पृ० ८०.
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