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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६३ आवश्यक बतलाया गया है।' मल-मूत्र आदि का त्याग करते समय भी सूक्ष्म जीवों की हिंसा न हो एतदर्थ बहत नीचे तक अचित्तभमि में मल-मूत्र विसर्जन का निर्देश किया गया है। इसके साथ ही वैदिक यागादि क्रियाओं के हिंसारूप होने से ग्रन्थ में अहिंसा-यज्ञ के करने का उपदेश दिया गया है। इस अहिंसा व्रत का ठीक से पालन करने के लिए आवश्यक है कि अहिंसावती प्रमाद ( असावधानी ) से रहित होकर आचरण करे क्योंकि प्रमादपूर्वक किया गया आचरण अहिंसा से युक्त होने पर भी हिंसारूप है तथा अप्रमादपूर्वक किया गया आचरण हिंसा से युक्त होने पर भी अहिंसारूप है। अतः प्रमादरहित होकर आचरण करने का उपदेश दिया गया है तथा अहिंसा व्रत के पालन करने को दुष्कर बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में अहिंसा व्रत का पालन करनेवाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इसके पालन न करने का फल जन्मान्तर में नरक की १. देखिए-एषणा एवं उच्चारसमिति । २. देखिए -प्रकरण ७ तथा मेरा निबन्ध 'यज्ञ : एक अनुचिन्तन' श्रमण, - सित ०-अक्टू०, १९६६. . ३. खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समृट्ठाय पहाय कामे । समिक्ख लोयं समया महेसी अप्पाणरक्खी चरेप्पमतो॥ -उ० ४.१०. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ -उद्धृत, सर्वार्थसिद्धि १.१३. तथा देखिए-उ० २.२२; ४.६-८; ६.१३; १०.१-३६ ; २१.१४-१५; २६.२२ आदि । ४. समया सव्व भूएसु सत्तमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायाविरहे जावज्जीवाए दुक्कर । -उ० १६.२६. ५. तस पाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे । .जो न हिसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं ।। -उ० २५.२३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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