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२६२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उनकी रक्षा करनी चाहिए।' अहिंसाव्रती साधु के लिए इतना ही नहीं अपितु अपना भी अहित करने वाले के प्रति क्षमाभाव रखना, उसे अभयदान देना, सदा विश्वमैत्री व विश्वकल्याण की भावना रखना तथा बध करने के लिए तत्पर होने पर भी उसके प्रति जरा भी क्रोध न करना, यह भी आवश्यक है। इसके अतिरिक्त गह-निर्माण, अन्नपाचन, शिल्पकला, क्रय-विक्रय, अग्नि जलाना आदि क्रियाएँ भी अहिंसाव्रती साधु को न तो स्वयं करना चाहिए और न दूसरे से करवाना चाहिए क्योंकि इन क्रियाओं के करने से सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है। इसीलिए साधु को भिक्षा आदि लेते समय इन सब दोषों का बचाना
१. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ।
-उ० ६.७. तथा देखिए-उ० ६.२; १३.२६ आदि । २. पुब्बि च इण्डिं च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ ।
-उ० १२.३२. महप्पसाया इसिणो हवंति न हु मुणी कोवपरा हवंति ।
-उ० १२.३१. हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसएं।।
-उ०२.२६. मेति भूएसु कप्पए।
-उ० ६.२. हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं ।
-उ० ८.३. तथा देखिए-उ० २.२३-२७; १३.१५; १५.१६; १८ ११;
१६.६०, ६३, २०.५७; २१.१३ आदि । ३. न सय गिहाई कुग्विज्जा व अन्नेहि कारए । गिहकम्मसमारंभे भूयाणं दिस्सए वहो ।।
-उ० ३५.८, तथा देखिए-उ० ३५.६-१५, ६.१५; १५.१६; २१.१३ आदि ।
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