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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
[२६१ १. अहिंसा-महाव्रत-सब प्रकार के प्राणातिपात से विरमण । २. सत्य-महाव्रत-सब प्रकार के मृषावाद से विरमण । ३. अचौर्य-महाव्रत-सब प्रकार के अदत्तादान से विरमण । ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत-सब प्रकार के यौन सम्बन्धों से विरमण । ५. अपरिग्रह-महाव्रत-सब प्रकार के धनादि-संग्रह से विरमण ।
इन पाँच नैतिक व्रतों का अतिसूक्ष्मरूप से पालन करना ही महाव्रत कहलाता है । इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : अहिंसा महाव्रत : ___ मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से किसी भी परिस्थिति में त्रस एवं स्थावर जीवों को दुःखित न करना अहिंसामहोवत है।' मन में किसी दूसरे को पीड़ित करने की सोचना तथा किसी दूसरे के द्वारा किसी अन्य को पीड़ित करने पर उसका समर्थन करना भी हिंसा है। अतः ग्रन्थ में कहा है कि जो हिंसा की अनुमोदना करते हैं वे भी उसके फल को भोगे बिना नहीं रह सकते हैं । २ भगवान् अरिष्टनेमी जब अपने विवाह के अवसर पर देखते हैं कि बहुत से पशुओं को मेरे निमित्त से (विवाह की खशी में खाने के लिए ) मारा जाएगा तो वे कहते हैं कि मेरे लिए यह परलोक में कल्याणप्रद नहीं है। जो हिंसा में सुख मानते हैं उनके विषय में ग्रन्थ में बहुत ही सुन्दर कहा है कि सुख-दु:ख अपनी आत्मा में ही रहते हैं तथा सब जीवों को अपने प्राण अति प्रिय लगते हैं। अतः हिंसावत्ति को छोड़कर
१. जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च । ___नो तेसिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव ।।
-उ० ८.१०. तथा देखिए-उ० १२.३६,४१; २५.२३ आदि । २. न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं ।
-उ०८,८. ३. जइ मज्झ कारणा एए हम्मति सुबहुजिया। न मे एयं तु निस्सेस परलोगे भविस्सई ।।
-उ० २२.१६.
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