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________________ ४२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करते थे जिससे मार्ग में क्षुधाजन्य' कष्ट न उठाना पड़े ।' सामान्य यात्रा में तथा माल वगैरह ढोने में बैलगाड़ी व रथ आदि को . उपयोग में लाया करते थे।२ रोगोपचार : ग्रन्थ में रोग तथा उसके औषधोपचार के विषय में सामान्य संकेत मिलते हैं। रोगों का इलाज करने के लिए बहुत से चिकित्साचार्य होते थे। ये वमन, विरेचन, औषधिसेवन, धूम्रप्रदान नेत्रस्नान, सवौंषधिस्नान, मन्त्र-विद्या आदि के द्वारा रोगों का इलाज किया करते थे। जैन साधु के लिए रोगों का इलाज कराना त्याज्य था।५ रोगों का इलाज करने के लिए चतुष्पाद चिकित्सा की जाती थी। चतुष्पाद चिकित्सा के चार अङ्ग १. अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेज्जो पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होई छुहातण्हविवज्जिओ ॥ -उ० १९.२१. २. अवसो लोहरहे जुत्तो जलते समिलाजुए। चोइओ तुत्तजुत्तेहिं रोज्झो वा जह पाडिओ ।। -उ० १६५७. तथा देखिए-उ० ६.४६ ; ५.१४; २७.२-८. . ३. ग्रन्थ में उल्लिखित रोगों के कुछ नाम-आमय ( ३२.११० ), व्याधि ( ३२.१२), आतंक ( १०.२७; ५.११; २१.१८; १९.७६; २६.३५), विसूचिका, अरइ चित्तोद्वेग, गंड-जिसमें ग्रीवा फूल जाती है ( १०.२७ ), अक्षिवेदना (२०.१६-२१ ). ४. मंतं मूलं विविहं वेचितं वमणविरेयणधुमणेतसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।। -उ० १५.८. तथा देखिए-उ० २०.२२; १६.७६-७७, ७६; १२.५०; २२.६%, जै० भा० स०, पृ० ३११-३१८. ५. वही; परीषहजय व भिक्षाचर्या तप, प्रकरण ५. ६. ते मे तिगिच्छं कुवंति चाउप्पायं जहाहियं । -उ० २०.२३. 'चाउप्पायं' ति 'चतुष्पादां' भिषग्भेषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भाग चतुष्टयात्मिकां 'यथाहितं, हिताऽनतिक्रमेण । - वही, ने० वृ०, पृ० २६६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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