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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ २०१ काया से दूसरों को पीड़ित करने के कारण तीन प्रकार का दण्ड (Hurtful acts); माया (कुटिलता), निदान (पुण्यकर्म की फलाभिलाषा) और मिथ्यात्व ये तीन शल्य (Delusive acts); धन-सम्पत्ति या ऋद्धि आदि की प्राप्ति का घमण्ड, रसना इन्द्रिय की संतुष्टि का घमण्ड और सुख-प्राप्ति (साता) का घमण्ड ये तीन गौरव (Conceited acts) तथा जाति, कुल, सौन्दर्य, शक्ति, लाभ (धनादि की प्राप्ति), श्रुतज्ञान, ऐश्वर्य और तपस्या ये आठ प्रकार के मद (Pride)। इन १७ प्रकार के दोषों में से तीन प्रकार के गौरव तथा आठ प्रकार के मद अहंकाररूप हैं। तीन प्रकार के दण्ड क्रोध-कषायरूप और तीन प्रकार के शल्य माया तथा लोभ-कषायरूप हैं। अतः सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए इन दोषरूप कषायों का त्याग आवश्यक है। सम्यग्दर्शन के भेद : ___ सामान्यतया कर्म-सिद्धान्त के अनुसार सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय (फलोन्मुख) में न होने
से (क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से) एक ही प्रकार से होती - है। उत्पत्ति में निमित्तकारण की अपेक्षा से ग्रन्थ में सम्यक्त्व के जिन १० प्रकारों को गिनाया गया है वे अधोलिखित हैं: ... १. निसर्गरुचि-स्वतः उत्पन्न । गुरु आदि के उपदेश के बिना ही जाति-स्मरण आदि के होने पर स्वतः जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होना कि ये वैसे ही हैं जैसे जिनेन्द्र भगवान् ने देखे हैं, अन्यथा नहीं हैं।
१. निसग्गुवएसरुई आणाई सुत्त बीयरुइमेव । अभिगम वित्थाररुई किरिया-संखेव धम्मरुई ।।
-उ० २८.१६. २. भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो । जो जिणदिळें भावे च उविहे सहहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य स निसगाइ त्ति नायव्वो ।
-3० २८.१७-१८.
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