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प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति
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हीन अर्थात् धार्मिक उपदेश को कुतर्क द्वारा खण्डित करनेवाले तथा विवेक से रहित ।' अतः इसका अर्थ हुआ कि ग्रन्थ के रचनाकाल में जनता का धर्म के प्रति विश्वास घटता जा रहा था और वे संसार के भोगों में निमग्न होते जा रहे थे । हिंसा, झूठ, लूटपाट, चोरी, मायाचारी, शठता, कामासक्ति, धनादि-संग्रह में आसक्ति, मद्य-मांसभक्षण, पर-दमन, अहंकार, लोलुपता आदि अनेक प्रवृत्तियां जनता में बढ़ रह थीं । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस समय के सभी लोग ऐसे ही थे अपितु बहुत से जीव सदाचारी भीथे । उन्हें अपने कुल, जाति आदि की प्रतिष्ठा का भी ध्यान था । अतः राजीमती संयम से पतित होनेवाले रथनेमी को कुल का स्मरण कराकर उसे व स्वयं को संयम में दृढ़ करती है । ऐसे लोग बहुत कम थे । अतः ग्रन्थ में कई स्थलों पर द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा भावयज्ञ, बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तरंगशुद्धि, बाह्यलिङ्ग ( वेष-भूषा ) की अपेक्षा आन्तरिक लिंग, द्रव्य-संयम की अपेक्षा भाव-संयम की प्रधानता बतलाई गई है। इसके अतिरिक्त भाव-संयम से हीन व्यक्ति की निन्दा भी की गई है । ४
धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदाय :
: धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों के संचालक प्रायः साधु होते थे । जनसामान्य की तरह ये भी संयम से पतित होकर विषयों के प्रति उन्मुख हो रहे थे । कामासक्ति सबसे अधिक थी । अतः ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य व्रत को सबसे कठिन बतलाकर अपरिग्रह व्रत से पृथक् स्वतन्त्र व्रत के रूप में इसे स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त और भी अन्य अनेक कुप्रवृत्तियाँ साधु सम्प्रदाय में बढ़ रही थीं । अतः ग्रन्थ
१. देखिए - पृ० २५७, पा० टि० १.
२. उ० ५.५-६, ६-१० ७.५-७, २२; १०.२० १७.१; १४.१६; ३४.२१ - ३२ आदि ।
३. अहं च भोगरायस्स तं चासि अंघगवहिणो ।
मा कुले गंधणा होमो संजम निहुओ चर ।
४. देखिए - पृ० २३८, पा० टि० ३; अनुशीलन, प्रकरण ५.
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- उ० २२.४४.
पृ० २३६, पा० टि० १-३;
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