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४२८] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
8. राज्यकोश की वद्धि करना। राजा को कोशवद्धि करना आवश्यक होता था क्योंकि कोश न होने पर राज्य चिरस्थायी नहीं हो सकता था। अतः इन्द्र राजा को हिरण्य, सुवर्ण, मणि, मुक्ता, कांस्य, दूष्य ( वस्त्र ), वाहन ( हाथी-घोड़े ) आदि से कोशवृद्धि करने को कहता है।' कोशवद्धि में सतत प्रयत्नशील रहने के कारण ग्रन्थ में क्षत्रियों को लोक के सम्पूर्ण पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी अतृप्त होने के दृष्टान्तरूप में बतलाया गया है।
१०. शरणागत को अभयदान देना। अतः मुनि की शरण में आए हुए मृग को मारनेवाला राजा संजय मुनि से क्षमा मांगता है।' - इस तरह तत्कालीन राज्य-व्यवस्था की कुछ झलक ग्रन्थ में मिलती है। मानव-प्रवृत्तियां :
उस समय जनसामान्य की प्रवृत्तियां किस प्रकार की थीं? इस विषय में केशि-गौतम संवाद में एक उल्लेख मिलता है। इसमें बतलाया गया है कि आदिकाल ( ऋषभदेव के समय ) के जीव 'ऋजुजड़' थे । इसका अर्थ है-सरल प्रकृति के तो थे परन्तु अर्थबोध अधिक कठिनाई से होता था अर्थात् इस समय के व्यक्ति विनीत होकर के भी विवेक से रहित थे। इसके बाद मध्यकाल (ऋषभदेव के बाद तथा महावीर के जन्म लेने के पूर्व ) के जीव 'ऋजुप्राज्ञ' थे। इसका अर्थ है-सरल के साथ बुद्धिमान् थे अर्थात् ये थोड़े से संकेत मात्र से सब समझ जाते थे और विनीत भी थे। परन्तु महावीर के काल के जीव जिनके शासन काल में उत्तराध्ययन का संकलन हुआ है 'वक्रजड़' थे। इसका अर्थ है-कुतर्क करनेवाले तथा विवेक से १. हिरण्णं सुवणं मणिमुत्तं कंसं इसं च वाहणं । कोसं वडढावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ।।
-उ० ९.४६. २. न निविजति संसारे सव्वट्ठसु व खत्तिया।
-उ० ३.५. तथा देखिए-उ० ६.४६, . ३. देखिए-पृ० ४२१, पा०, टि० २; उ० १८.७, ११. •
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