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४३०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में बार-बार साधु को सचेष्ट रहने के लिए कहा गया है। सत्रहवें अध्य यन में पतित-साधुओं के कुछ ऐसे ही क्रिया-कलापों का वर्णन किया गया है। धार्मिक सम्प्रदायों में यद्यपि प्रकृत ग्रन्थ में जैन श्रमणों के आचार का ही वर्णन किया गया है परन्तु कुछ ऐसे संकेत भी मिलते हैं जिनसे अन्य धार्मिक सम्प्रदायों की स्थिति का भी पता चलता है। ग्रन्थ में उन्हें असत् अर्थ की प्ररूपणा करनेवाले, मिथ्यादृष्टि, पाखण्डी आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है । ' - उन सम्प्रदायों के नाम थे :२ १. क्रियावादी ( केवल क्रिया से मुक्ति माननेवाले ), २. अक्रियावादी ( आत्मा की क्रियाशीलता में विश्वास न करनेवाले ), ३. विनयवादी ( पशु-पक्षी आदि सभी के प्रति विनयभाव रखनेवाले ), ४. अज्ञानवादी ( मुक्ति के लिए ज्ञान की अपेक्षा न स्वीकार करनेवाले ) ५. शाश्वतवादी ( वस्तु को नित्य माननेवाले )। इन सम्प्रदायों का उल्लेख जैन आगमों में विस्तार से मिलता है। ____इन चार प्रकार के दार्शनिक सम्प्रदायों के अतिरिक्त ग्रन्थ में बाह्य वेष-भूषा के आधार से पांच प्रकार के साधु-सम्प्रदायों का भी उल्लेख है :४ १. चीराजिन ( वस्त्र व मृगचर्म धारण करने१. कुतित्थिनिसेवए जणे ।
-उ० १०.१८. पासंडा कोउगासिया ॥
-उ० २३.१६. तथा देखिए-उ० १८.२६-२७, ५२. २. किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी। एएहिं चउहि ठाणेहिं मेयन्ने कि पभासई ॥
-उ०१५.२३. स पुष्वमेवं न ल भेज्ज पच्छा एसोवमा सासय वाइयाणं ।
-उ० ४.६. ३. देखिए-जै० भा० स०, पृ० ३७६, ४२८; सूत्रकृतांगसूत्र १.१२.१. . ४. चीराजिणं नगिणिणं जडी संघाडि मुंडिणं । एयणि वि न तायंति दुस्सील परियागयं ।।
-उ० ५.२१.
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