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प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति
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वाले ), २. नग्न ( नग्न रहनेवाले जैनेतर साधु ), ३. जटाधारी, ४. संघाटी ( गुदड़ी के वस्त्र धारण करनेवाले ) और ५. मुण्डित ( शिर मुड़ानेवाले जैनेतर साधु ) ।
इन सम्प्रदायों के अतिरिक्त उस समय और भी रहे होंगे परन्तु उनका यहाँ उल्लेख नहीं मिलता है । संवाद से स्पष्ट है कि जैनश्रमणों में भी दो सम्प्रदाय थे : १. सचेल ( पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य ) और २. अचेल ( महावीर की परम्परा के शिष्य ) । ये ही दोनों सम्प्रदाय कालान्तर में श्वेताम्बर ( स्थविरकल्प ) और दिगम्बर ( जिनकल्प ) सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध हुए ।
अনুळन
सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से उस समय जाति और वर्ण के आधार पर सामाजिक संगठन था । जात-पांत का भेदभाव बहुत बढ़ चुका था । शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी । ये दास के रूप में काम करते थे और इनका सर्वत्र निरादर होता था । ब्राह्मणों का आधिपत्य था और वे धर्म के नाम पर यज्ञों में अनेक : मूक- पशुओं की हिंसा करके अपना उदर-पोषण करते थे । ये वेदों
वास्तविक अर्थ को नहीं समझते थे । जैनों का उनसे वाद-विवाद होता था। अधिकांश क्षत्रिय और वैश्य काफी धनसम्पन्न थे । क्षत्रिय प्रजा पर शासन करते और भोग-विलास में लीन रहते थे । कुछ क्षत्रिय राजा श्रमणदीक्षा भी ले लेते थे । वैश्य विदेशों तक व्यापार करने जाते और निमित्त मिलने पर श्रमण-दीक्षा भी ले लेते थे ।
कई सम्प्रदाय केशि- गौतम
परिवार में माता-पिता का स्थान सर्वोपरि होता था । पिता परिवार का पालन-पोषण करता था । परिवार में पुत्र सबको प्रिय था। माता-पिता पुत्र के अभाव में घर में रहना निरर्थक समझते थे । परिवार में माता-पिता की शोभा पुत्र से ही मानी जाती थी । . अतः पुत्र के दीक्षा ले लेने पर माता-पिता बड़े चिन्तित होते थे और कभी-कभी माता-पिता भी पुत्र के साथ दीक्षा ले लेते थे । पिता की के बाद परिवार की बागडोर पुत्र ही सम्हालता था ।
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मृत्यु
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