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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
मूढ़ता को उत्पन्न करने वाला ( मोहनीय), ५. जीवन की स्थिति का मापक ( आयु ), ६. शरीर की रचना आदि में निमित्तकारण ( नाम ), ७. उच्च या नीच कुलादि की प्राप्ति में कारण (गोत्र) और ८. आत्मा की वीर्यादि शक्तियों का प्रतिबन्धक ( अन्तराय) |
इन आठ प्रकार के कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म जीव के ज्ञानादि अनुजीवी गुणों को घातने ( प्रकट न होने देने) के कारण 'घातिया' कहे जाते हैं । इनके विष्ट होने पर जीव के शेष अन्य चार कर्म आयु के पूर्ण होते. पर स्वत: नष्ट हो जाते हैं क्योंकि अघातिया कर्मों के प्रभाव से जीव के स्वाभाविक ज्ञान आदि गुणों के प्रकट होने में कोई बाधा नहीं पड़ती है । अत: इन्हें - शेष आयु आदि चार कर्मों को 'अघातिया ' कहा गया है । ग्रन्थ में इसीलिए चार घातिया कर्मों के विनष्ट होने पर जीव को जीवन्मुक्त मान लिया गया है क्योंकि शेष चार अघातिया कर्म आयु के पूर्ण होने पर एक साथ बिना विशेष प्रयत्न के नष्ट हो जाते हैं । "
अब क्रमश. आठों कर्मों के स्वरूपादि का वर्णन किया जाएगा । १. ज्ञानावरणीय कर्म - जो आत्मा में रहने वाले ज्ञानगुण को प्रकट न होने देवे उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । ज्ञान के मुख्य पाँच प्रकारों के आधार पर ज्ञानावरणीय कर्म के भी पाँच अवान्तर भेद बतलाए गए हैं । इन अवान्तर भेदों ( उत्तर- प्रकृतियों ) के क्रमशः नाम ये हैं १. श्रुतज्ञानावरण - शास्त्रज्ञान का आवरक २. आभिनिबोधिकज्ञानावरण' ( मतिज्ञानावरण ) - इन्द्रियजन्य ज्ञान का आव१. सत्यजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ ।
- उ० २९.७. वेणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ । - उ० २६.७२.
तथा देखिए - उ० २९.४१,५८,६१,३२.१०६ आदि । २. उ० ३३.४.
३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, स्थानाङ्ग, तत्त्वार्थसूत्र आदि अन्य जैन ग्रन्थों में श्रुतज्ञानावरण के पहले आभिनिबोधिकज्ञानावरण ( मतिज्ञानावरण) का उल्लेख मिलता है । जैसे - मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानाम् ।
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- त० सू० ८.६.
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