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________________ प्रकरण २ : संसार [ १५५ रक, ३. अवधिज्ञानावरण-इन्द्रियादि की सहायता के बिना होने वाले रूपी अचेतन विषयक (सीमित पदार्थो के) यौगिक प्रत्यक्ष ज्ञान का आवरक, ४. मनःपर्यायज्ञानावरण-इन्द्रियादि की सहायता के बिना दूसरे के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान का आवरक' और ५. केवलज्ञानावरण- इन्द्रियादि की सहायता के विना त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों की समस्त अवस्थाओं (पर्यायों) के ज्ञान का आवरक । २. दर्शनावरणीय कर्म-जो पदार्थों के सामान्यज्ञान या आत्मबोधरूप दर्शन गुण को प्रकट न होने देवे उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। इसके नव अवान्तर भेद गिनाए गए हैं। इनमें प्रथम पाँच भेद निद्रा से सम्बन्धित हैं तथा शेष चार दर्शनसम्बन्धी हैं : 3 १. निद्रा-जिस कर्म के प्रभाव से जीव को सामान्य निद्रा आए, १. मनःपर्यायज्ञान के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन श्वेताम्बरों में दो परम्प राएं देखी जाती हैं : क. मन.पर्यायज्ञान परकीय मन से चिन्त्यमान अर्थों को जानता है। ख. मनःपर्यायज्ञान चिन्तनव्यापृत मनोद्रव्य की पर्यायों को साक्षात् जानता है और चिन्त्यमान पदार्थ तो पीछे से अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं क्योंकि चिन्त्यमान पदार्थ मूर्त की तरह अमूर्त भी हो सकते हैं जिन्हें मनःपर्यायज्ञान विषय नहीं कर सकता है। पहली परम्परा का दिग्दर्शन हमें आवश्यकनियुक्ति (गाथा ७६) तथा तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१.२६) में होता है। दूसरी परम्परा का उल्लेख विशेषावश्यक भाष्य (गाथा ८१४) में हुआ है । श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र द्वितीय परम्परा का तथा सभी दिगम्बर जैन आचार्य प्रथम परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। देखिए -प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पणानि, पृ० ३७-३८. २. याकोबी (से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १९२-१६३) ने शब्द-साम्य के भ्रम से इसका 'सत्य श्रद्धा का प्रतिबन्धक' अर्थ किया है। याकोबी का यह अर्थ वस्तुतः दर्शनमोहनीय का अर्थ है, न कि दर्शनावरणीय कर्म का। इसी प्रकार चक्षुर्दर्शन के अर्थ में भी उन्हें भ्रम हुआ है। ३. उ० ३३.५-६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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