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प्रकरण २ : संसार
[१५३ कर्म-सिद्धान्त भाग्यवाद नहीं :
इस कर्म-सिद्धान्त से यद्यपि भाग्यवाद या अनिवार्यतावाद की पुष्टि होती है परन्तु यहाँ पर यह इष्ट नहीं है क्योंकि जीव को अच्छा या बुरा कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र माना गया है। यह अवश्य है कि किए हुए कर्मों का फल भोगना जीव के स्वातन्त्र्य पर निर्भर नहीं है क्योंकि कर्म करने पर उनका फल भोगना आवश्यक माना गया है। ऐसी स्थिति होने पर भी यदि जीव पुरुषार्थ करे तो अपने पूर्वबद्ध कर्मों को पृथक् कर सकता है। अत: इस कर्म-सिद्धान्त को 'भाग्यवाद' कहने की अपेक्षा 'पुरुषार्थवाद' कहना अधिक उपयुक्त है। 'जैसी करनी वैसी भरनी', 'जो जस करहि सो तस फल चाखा', 'As you sow, so you reap' आदि प्रचलित मुहावरों से इस कर्म-सिद्धान्त को अच्छी तरह समझा जा सकता है। कर्मों के प्रमुख भेद-प्रभेद :
कर्म जब आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं तो वे मुख्यरूप से आठ रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये कर्मों की आठ अवस्थाएँ ही कर्मों के प्रमुख आठ भेद कहे गए हैं। ग्रन्थ में इन्हें मूल कर्मप्रकृति तथा इनके अवान्तर भेदों को उत्तर कर्मप्रकृति कहा गया है। प्रकृति का अर्थ है-बस्तु का स्वभाव । अतः बन्ध को प्राप्त होने वाले कर्म-परमाणओं में अनेक प्रकार के परिणामों को उत्पन्न करने वाली स्वाभाविक शक्तियों का पड़ना प्रकृतिबन्ध है। उन मूल आठ कर्मों या कर्मप्रकृतियों के कार्य एवं नाम निम्नोक्त हैं :२ ... १. आत्मा के ज्ञान गुण का प्रतिबन्धक (ज्ञानावरणीय , २. सामान्यबोध या आत्मबोध का प्रतिबन्धक ( दर्शनावरणीय), ३. सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला (वेदनीय), ४. मोह या १. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया ।
-उ० ३३.१६. २. नाणसावरणिज्ज"अद्वैव उ समासओ।
-उ० ३३.२-३.
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