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________________ १५२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन द्वारा ही भोक्तव्य है । जिस प्रकार सेन्ध लगाते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया चोर नहीं बच सकता है उसी प्रकार इन कम से छूटना भी संभव नहीं है । सम्राट ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तथा देवता आदि जब इन कर्मों का फल भोगे बिना नहीं बच सकते हैं तो फिर अन्य सामान्य जीव इनका फल भोगे बिना कैसे बच सकते हैं ? हम जो ऐसा व्यवहार करते हैं कि हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु वगैरह हमारी रक्षा करते हैं तथा हमारे लिए सुख-साधनों को जुटाते हैं, यह भी पूर्वभव के अपने-अपने कर्मों का ही फल है । अतः हमारे सुख-दुःख आदि में माता-पिता, भाई-बन्धु आदि सिर्फ निमित्तकारण हैं, उपादानकारण तो हमारे पूर्वबद्ध कर्म ही हैं । निमित्तकारण कर्मों के अनुसार अपने आप मिल जाते हैं । इस तरह जीव में जो भी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी क्रिया या सुखदुःख की अनुभूति दृष्टिगोचर होती है वह सब अपने-अपने पूर्वबद्ध कर्मों के प्रभाव से है । अतः ग्रन्थ में सभी संसारी जीवों को अपने-अपने कर्मो से पच्यमान कहा गया है । 3 चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । सम्मबीओ अवसो पयाइ परं भवं सुन्दरपावगं वा । - उ० १३.२३-२४. तथा देखिए - पृ० १३३, पा० टि० २. १. संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति । - उ० ४.४, २. तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी | एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ॥ तथा देखिए - पृ० १५१, पा० टि० २. ३. थावरं जंगमं चेव धणं घण्णं उवक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं नालं दुक्खाउ मोयणे || Jain Education International - उ० ६.६. For Personal & Private Use Only - उ० ४.३. www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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