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________________ प्रकरण २ : संसार [ १५१ किए गए (पूर्वबद्ध) कर्म जो आत्मा के साथ बद्ध होकर सुख-दुःख आदि का अनुभव कराते हैं । ' ये कर्म एक सच्चे न्यायाधीश की तरह जीव की प्रत्येक कार्यवाही को लिखते से जाते हैं और तदनुसार इनका फल भी देते हैं क्योंकि ये कर्म सत्य हैं। अतः ये जिस रूप में किए जाते हैं उसी रूप में उसका फल भी अवश्य देते हैं। कर्मों का फल भोगे बिना किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता है। यदि अच्छे कर्म करते हैं तो सुखरूप अच्छा फल मिलता है। यदि बुरे कर्म करते हैं तो दुःखरूप बुरा फल मिलता है। इन कर्मों के अनुसार ही अगले भव में श्रेष्ठ अथवा निम्न कुल-गोत्र-शरीररचना आदि की प्राप्ति होती है। मरने के बाद परलोक में भी साथ देने वाला यदि कोई है तो वह है जीव के द्वारा किया गया शुभाशुभ कर्म । अतः ग्रन्थ में लिखा है-भाई, बन्ध आदि न तो किसी के कर्म के भागीदार बन सकते हैं और न कर्म से उसको छुटकारा दिला सकते हैं क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है।५ पर के लिए भी किया गया कर्म कर्ता (कर्मकर्ता) के १. इहं तु कम्माई पुरेकडाई ।। -उ० १३.१६. कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय विचिन्तिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया ॥ -उ० १३.८. २. कम्मसच्चा हु पाणिणो। -उ० ७.२०. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि । -~-उ० १३.१०. .. ३. शुभकर्मों के शुभफल के लिए देखिए-उ० १३ १०-११; १६.२१ २२; २०.३३; २६.२३ आदि । अशुभकर्मों के अशुभफल के लिए देखिए- उ० ३.५; ५.१३; १८. २५; १६.१६-२०, ५८; २१.६; २६ ३२; ३० ६ आदि । ४. उ० ३ ३; १४ १-२ आदि । ५. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा । - एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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