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________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [३१ -संवादरूप में (जैसे-केशिगौतमीय) कहे गये हैं,' कैसे संगत होगा ? संभवतः नियुक्तिकार का उपर्युक्त कथन 'उत्तराध्ययन एककर्तृक नहीं हैं', की अपेक्षा से ही है। अतः नियुक्तिकार ३६वें अध्ययन की अन्तिम गाथा की नियुक्ति में उत्तराध्ययन का महत्त्व बतलाते हुए स्पष्ट रूप से इसे जिन-प्रणीत लिखते हैं। इस तरह उत्तराध्ययन के रचनाकाल की अवधि महावीर-निर्वाण के काल तक पहुँच जाती है। - उत्तरकाल की ओर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि इसमें कुछ अंश बाद में जोड़े गये हैं जो लगभग तृतीय-वलभी-वाचना तक के अवश्य हैं। दिगम्बर ग्रन्थों में उत्तराध्ययन का जो विषय बतलाया गया है उससे दूसरे परीषह अध्ययन को छोड़कर शेष अधिकांश भाग संघभेद के बाद का प्रतीत होता है। इससे कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन अपने अपरिवर्तित रूप में नहीं १. अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेय बुद्धसंवाया। 'बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ -उ० नि०, गाथा ४; इसी नियुक्ति पर शान्तिसूरि की टीका, पृ० ५ ; उ० चूर्णि, पृ० ७... २. चउविहोवसग्गाणं बावीसपरिस्सहाणं च सहणविहाणं । सहणफलमेदम्हादो एदमुत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वणेदि । -कसायपाहुड-जयधवलाटीका, भाग-१, पृ० १२०. उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादिविसे सिदं परूवेदि। -षटखण्डागम, पुस्तक ६, पृ० १६०. उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं पदं जिणिदेहिं । बावीसपरीसहाणं उवसग्गाणं च सहणविहिं । वण्णेदि तप्फलमवि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कहदि गुरुसीसयाण पइण्णिय अट्ठमं तं खु । -अंगपण्णत्ति-चूलिका गाथा, २५-२६, उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ । -धवला (षट्खण्डागम-टीका), पृ० ६७ (सहारनपुर-प्रति, लिखित). . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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