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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
रहा । भगवती आराधना पर लिखी गई अपराजितसूरि की संस्कृतटीका से उत्तराध्ययन के दो पद्य उद्धृत करते हुए पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपने जैन साहित्य के इतिहास में लिखा है कि वर्तमान उत्तराध्ययन में ये पद्य' नहीं मिलते हैं । अतः उत्तराध्ययन में वलभी - वाचना के बाद भी परिवर्तन हुआ है । इतना होने पर भी मूलरूपता का अधिक अभाव नहीं हुआ है क्योंकि वर्तमान उत्तराध्ययन में वे दोनों पद्य सामान्य परिवर्तन के साथ अब भी मौजूद हैं।
जब हम उत्तराध्ययन के अन्तःभाग का अवलोकन करते हैं तो देखते हैं कि इसमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनके आधार पर कुछ अंशों को महावीर - निर्वाण के बहुत बाद की रचना कहा जा सकता है | जैसे :
१. अंग-ग्रन्थों में ग्यारह अंगों से पृथक् दृष्टिवाद का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि उस समय तक दृष्टिवाद का लोप हो चुका था । दृष्टिवाद के महत्त्व को प्रकट करने के लिए ऐसा कथन किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि आचाराङ्ग का महत्त्व सर्वाधिक माना गया है । इसके अतिरिक्त ३१ वें अध्ययन में जहाँ पर कि साधु को कुछ ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने को कहा गया है उनमें दृष्टिवाद का समावेश क्यों नहीं किया गया है ?
१. परचित्ते वत्थे ण पुणो चेलमादिए ।
अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सलग सुखी भवदि असुखी वावि अचेलगो ।
अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चितए ।
( उद्धृत - भगवती आराधना - जै० सा० इ० पू० पृ० ५२५-५२७.) २. तुलना कीजिए
परजुहि वत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा सचेले होक्खामि इ इ भिक्खू न चितए || गयाचे लए होइ सचेले आवि एगया । एयं धम्मं हियं नच्चा नाणी तो परिदेवए ||
- उ० २.१२-१३.
३. देखिए - पृ० ३, पा० टि० २.
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