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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र
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२. सूत्ररुचि - सम्यग्दर्शन के लक्षण में अंग और अंगबाह्य ग्रन्थों IT तथा अभिगम - रुचि सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'प्रकीर्णक' ग्रन्थों का उल्लेख आया है।' इससे स्पष्ट है कि उस समय तक अंग, अंगबाह्य और प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना अवश्य हो चुकी होगी ।
३. चरणविधि नामक ३१ वें अध्ययन में साधु को सूत्रकृताङ्ग, ज्ञाता -सूत्र और प्रकल्प ( आचाराङ्ग - निशीथसहित ) इन अंग-ग्रन्थों तथा दशादि ( दशाश्रुत, कल्प और व्यवहार) अंगबाह्य ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने का विधान किया गया है। इससे स्पष्ट है तब तक ये ग्रन्थ अपने महत्त्व के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे । अन्यथा इनके विषय में साधु को यत्नवान् होने का उल्लेख न किया जाता ।
४ ग्रन्थ में बहुत्र 'ऐसा भगवान् ने कहा है', 'कपिल ऋषि ने ऐसा कहा है '' आदिरूप से ग्रन्थोक्त वचनों की प्रामाणिकता का प्रतिपादन करने से यह तो स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ साक्षात् महावीरप्रणीत नहीं है अपितु अर्थत: महावीर प्रणीत है और शब्द किसी अन्य व्यक्ति के हैं । इसका और अधिक स्पष्ट उल्लेख १०वें अध्ययन की अन्तिम गाथा ( बुद्धस्स निसम्म भासिय, सुकहियमट्टपओवसोहियं) में मिलता है । इसके अतिरिक्त अंगग्रन्थों का महावीर के प्रधान शिष्यों द्वारा और अंगबाह्य का तदुत्तरवर्ती शिष्यों द्वारा प्रणयन माना जाने से भी सिद्ध है कि उत्तराध्ययन शब्दतः महावीर - प्रणीत न होकर उनके शिष्यों द्वारा रचित रचना है ।
५. केशिगौतम-संवाद के सचेलकत्व ( सान्तरोत्तर ) और अचेलकत्वविषयक संवाद से संघभेद का स्पष्ट संकेत मिलता है ।
१. वही ।
२. उ० ३१.१३-१४, १६-१८.
विशेष के लिए देखिए - परिशिष्ट ३.
३. देखिए - पृ० १८, पा० टि० १; पृ० २३, पा० टि० १; उ० दूसरे
एवं १६ वें अध्ययन का प्रारम्भिक गद्य ।
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