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३४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
६. द्रव्य, गुण, पर्याय आदि सैद्धान्तिक विषयों की इतनी संक्षिप्त एवं परिमार्जित परिभाषाएँ' यह सिद्ध करती हैं कि इनका प्रणयन दार्शनिक क्रान्ति के काल में हुआ है क्योंकि आगमों में इस प्रकार की संक्षिप्त परिभाषाएँ उपलब्ध न होकर प्रायः विवरणात्मक अर्थ ही मिलते हैं।
७. उत्तराध्ययन का प्रायः बहुवचनात्मक प्रयोग मिलने से ज्ञात होता है कि यह एककर्तृक न होकर अनेक अध्ययनों का संकलन है।
इन सभी तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान उत्तराध्ययन किसी एक काल की एवं किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है अपितु एक संकलन-ग्रन्थ है जिसका प्रणयन किसी निश्चितकाल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ है। इसमें पाए जानेवाले परिवर्तन एवं संशोधन आदि महावीरनिर्वाण के काल से लेकर तृतीय-वलभी-वाचना के समय (महावीरनिर्वाण से लेकर करीब १००० वर्ष-ई० पू० ५ वीं शताब्दी से ई० सन् ५ वीं शताब्दी) तक के अथवा इसके भी कुछ समय बाद तक के प्रतीत होते हैं। क्योंकि तृतीय-वाचना के समय लिपिबद्ध किए गए समवायांग-सूत्र में उत्तराध्ययन के जिन ३६
१. गुणाणमासवो दव्वं एग दवस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।।
-उ० २७. ६..
तथा देखिए-प्रकरण १, धर्मादि द्रव्यों की परिभाषा । २. ऐतेसि चेव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झ
यणभावसुतक्खंधेति लब्भइ, ताणि पुण छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहि नामेहिं अणुगंतव्वाणि । -उ० चूणि, पृ० ८.
तथा देखिए-पृ० १२, पा० टि० १; पृ० ३१, पा० टि० १; पृ० ३६, पा० टि० १; नंदी, सूत्र ४३; उ० बृहवृत्ति, पत्र ५; समवा०, समवाय ३६.
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