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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ३५
अध्ययनों के नामों का उल्लेख मिलता है उनसे वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन के नामों में कुछ वैषम्य है । यह वैषम्य यद्यपि नगण्य है फिर भी इससे उसके परिवर्तन व संशोधन की स्पष्ट प्रतीति होती है।
नियुक्तिकार ( ६ ठी शताब्दी ) प्रकृत ग्रन्थ को एककर्तृक स्वीकार न करते हुए भी उत्तराध्ययन की अन्तिम गाथा के व्याख्यान में इसे भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के समय का उपदेश बतलाते हैं । वास्तव में नियुक्तिकार का उपर्युक्त कथन प्रकृत पद्य का व्याख्यान मात्र है। संभव है, यह पद्य उत्तराध्ययन के महत्त्व को प्रकट करने के लिए बाद में जोड़ दिया गया हो और नियुक्तिकार ने पूर्व - परम्परा का निर्वाह किया हो । छत्तीसवें अध्ययन की अन्त की कुछ गाथाओं को देखने से तथा अठारहवें अध्ययन की चौबीसवीं गाथा के साथ छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिमगाथा की तुलना करने से उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है । १ बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य भी उत्तराध्ययन को भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के समय का अन्तिम उपदेश मानने को पूर्णतः तैयार नहीं हैं । अतः उन्होंने 'परिनिव्वुए ' शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत' किया है।
१. इद्द पाउकरे बुद्धे नायए परिणिव्वए ।
विज्जाचरण संपत्रे सच्चे सच्चपरक्कमे ||
- उ० १८. २४.
इस उद्धरण का पृ० १२, पा० टि० १ से मिलान कीजिए ।
२. अथवा पाउकरे, त्ति प्रादुरकार्षीत् प्रकाशितवान् शेषं पूर्ववत् नवरं 'परिनिर्वृतः क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात्स्वस्थीभूतः ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ७१२.
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-उ०.
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इत्येवं रूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत् - प्रकटितवान् " 'परिनिवृतः ' कषायानल विध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतः ।
- उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ४४४.
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