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३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
नियुक्तिकार ने ग्रन्थ की प्रशंसा में उत्तराध्ययन को जो जिनप्रणीत कहा है। उसका तात्पर्य शब्दत: जिन-प्रणीतता से नहीं है अपितु अर्थतः जिन-प्रणीतता से है। अर्थ की अपेक्षा से सभी मान्य ग्रन्थ जिन-प्रणीत ही हैं अन्यथा उनमें प्रामाण्य ही न रहेगा। उत्तराध्ययन के अंगबाह्य-ग्रन्थ होने से भी स्पष्ट है कि इसकी रचना न तो भगवान् महावीर ने की और न उनके प्रधान शिष्यों ( गणधरों) ने; अपितु तदुत्तरवर्ती श्रुतज्ञों ने की है। इसीलिए बृहदवत्तिकार 'जिन' शब्द का अर्थ 'श्रुतजिन' या. 'श्रुतकेवली' करते हैं।
इस विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन शब्दतः भगवान् महावीर-प्रणीत नहीं है । इसके अतिरिक्त इसका प्रारम्भिक रूप दशवैकालिक की रचना (वी० नि० १ ली शताब्दी, ई. पू. ४५२-४२६) के पूर्व निर्धारित हो चुका था क्योंकि दशवकालिक की रचना हो जाने के बाद उत्तराध्ययन की अध्ययनपरम्परा का क्रम दूसरे से तीसरा हो गया था ।3 चूणि के एक वैकल्पिक उद्धरण के आधार पर आचार्य तुलसी की यह संभावना कि उत्तराध्ययन का छठा अध्ययन भगवान् पार्श्व द्वारा कथित है,४ उचित प्रतीत नहीं होती है। १. जे किर भवसिद्धीया परित्तसंसारिया य जे भव्वा ।
ते किर पढंति एए छत्तीसं उत्तरज्झाए॥ . तम्हा जिणपण्णत्ते, अणंतगम-पज्जवेहि संजुत्ते । अज्झाए जहजोगं, गुरुप्पसाया अहिज्जिज्जा ।
-उ०, ने० ३०, पृ० ३६१. २. तस्माज्जिनः श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिताः ।
-उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ७१३. ३. देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. ४. केचिदन्यथा पठन्ति
एवं से उदाहु अरहा पासे पुरिसादाणीए । भगवंते वेसालीए बुद्धे परिणुव्वुडे । -उ० चूर्णि, पृ० १५७. तथा देखिए-द० उ०, भूमिका, पृ० २४, २६.
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