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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र
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इस तरह उत्तराध्ययन की रचना का आदिकाल वी० नि० की १ ली शताब्दी का प्रारम्भिक काल निश्चित होता है । उत्तराध्ययन में देवधिगणि की वाचना के समय ( वी० नि० ६८०-६६३) तक के तथा इससे भी कुछ समय बाद तक के परिवर्तन उपलब्ध होने से इसका अन्तिम रूप वी० नि० के १००० वर्ष बाद तक का है । इसके संवाद, कथा एवं उपदेश - प्रधान अध्ययनों का प्रणयन सैद्धान्तिक अध्ययनों की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता है । "
इन सभी बातों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उपलब्ध उत्तराध्ययन में भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर करीब १००० वर्ष तक की कुछ न कुछ विचारधारां मौजूद है | अतः उत्तराध्ययन किसी एक व्यक्ति की किसी एक कालविशेषं की रचना न होकर विभिन्न समयों में संकलित किया गया एक संकलन-ग्रन्थ है । शार्पेन्टियर, विन्टरनित्स आदि सभी विद्वान् प्रायः इसी मत से सहमत हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र : यह नाम क्यों :
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्द हैं - उत्तर + अध्ययन + सूत्र | उत्तर शब्द के तीन अर्थ संभव हैं - १. प्रधान, २. जबाब
१. तथा, ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनानि तेषु च नमि- कपिलादिमहर्षीणां सम्बन्धीनि प्रायो धर्माख्यानकान्येव कथ्यन्त इति धर्मकथानुयोग एव तत्र व्यवस्थापितः ।
- विशेषावश्यकभाष्य ( गाथा २२९४ ) - मलधारी - टीका, पृ० ३१.
२. देखिए - पृ० ४४, पा० टि० १; पृ० ४५, पा० टि० १.
३. नियुक्तिकार भी उत्तर शब्द के संभाव्य अर्थों को सूचित करते हुए लिखते हैं
जहणं सुत्तरं खलु उक्कोसं वा अणुत्तरं होई ।
सेसाई उत्तराई अणुत्तराई च नेयाणि ||
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- उ० नि०, गाथा २.
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