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________________ ११४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इसके ऊपर नहीं। कल्पों की संख्या १२ होने से इनके भी १२ भेद गिनाए गए हैं। इनके क्रमशः नाम ये हैं : सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक (लान्तव), महा शुक्र, सहस्रार आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । ये सभी क्रमशः ऊर्ध्वलोक में ऊपर-ऊपर हैं। ख. कल्पातीत वैमानिक देव-कल्प मर्यादा, स्वामी-सेवकभाव) से रहित होने के कारण इन्हें कल्पातीत कहते हैं। ये दो प्रकार के हैं - ग्रैवेयक और अनुत्तर । १. अवेयक - जिस प्रकार ग्रीवा गर्दन) में कीमती हार आदि आभूषण धारण किए जाते हैं उसी प्रकार जो पुण्यशाली जीव लोक के ग्रीवाभूत ऊपर के भाग में निवास करते हैं उन्हें ग्रैवेयक कहते हैं। इनकी संख्या नव बतलाई गई है और ये तीन त्रिकों (अधोभाग के तीन भाग, मध्यभाग के तीन भाग तथा ऊर्ध्वभाग के तीन भाग , में विभक्त किए गए हैं।४ २. अनुत्तर (न उत्तर-श्रेष्ठ-अनुत्तर)-जिनके समान ऐश्वर्य किसी अन्य संसारी जीव का न हो उन्हें अनुत्तरदेव कहते हैं। ये पाँच प्रकार के बतलाए गए हैं : विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ।५ अगले भव में नियम से मुक्त होने वाले १. इस विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद के लिए देखिए-त० सू० ४.१६ पर पं० फूलचन्द्र शास्त्री और पं० सुखलाल संघवी की टीकाएँ। २. कप्पोवगा बारसहा सोहम्मीसाणगा तहा। . सणंकुमारमाहिंदा बम्भलोगा य लंतगा।। महासुक्का सहस्सारा आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा ।। -उ० ३६.२०६-२१०, ३ कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया। गेविज्जाणुत्त रा चेव ........... -उ० ३६ २११ ४. गेविज्जा नवविहा तहि 'इय गेविज्जगा सुरा ।।। -~-उ० ३६.२११-२१४. तथा देखिए-उ० आ० टी०, पृ० १७७२. ५. विजया वेजयंता य जयंता अपराजिया । सव्वत्थसिद्धिगा चेव पंचहाणुत्तरा सुरा।। -उ० ३६.२१४:२१५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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