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________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ११३ भवनवासी आदि तीनों प्रकार के देवों की अधिकतम आयु क्रमशः कुछ अधिक १ सागर, १ पल्योपम और लाख वर्ष अधिक पल्योपम है। निम्नतम आयु क्रमशः १० हजार वर्ष, १० हजार वर्ष और पल्योपम का आठवां भाग है। इनकी कायस्थिति आयू (भवस्थिति) के ही बराबर है क्योंकि नारकी जीवों की तरह देव भी मरकर पुन: देव नहीं होते हैं । देव मरकर या तो मनुष्य होते हैं या तिर्यञ्च। इसीलिए देवों की आयु से पृथक कायस्थिति नहीं बतलाई गई है। इनमें अन्तर्मान, क्षेत्रस्थिति आदि सभी बातें मनुष्यों की ही तरह हैं। वैमानिक देव-विशेषरूप से माननीय (सम्मानाई) होने के कारण तथा विमानों में निवास करने के कारण ये वैमानिक कहलाते हैं। इन्हीं देवों को लक्ष्य में रखकर प्रायः देवों के ऐश्वर्य आदि का वर्णन किया जाता है। ये कल्पोत्पन्न और कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के हैं।४ क. कल्पोत्पन्न वैमानिक देव-कल्प शब्द का अर्थ है-मर्यादा या कल्पवृक्ष (जो इच्छा करने मात्र से अभीष्ट वस्तु को दे देते हैं । अतः जो अभीष्ट फल देने वाले इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कहलाते हैं। इन्द्र आदि की कल्पना कल्पोत्पन्न देवों में ही होती है क्योंकि इसके ऊपर के सभी देव 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। अतः स्वामी-सेवक भाव यहाँ पर ही होता है, १. साहियं सागरं एक्कं उक्कोसेण ठिई भवे । पलिओवमट्ठभागो जोइसेसु जहन्निया ॥ -उ० ३६.२१८-२२०. २. जा चेव उ आउठिई देवाणं तु वियाहिया । सा तेसि कायठिई जहन्नुकोसिया भवे ॥ -उ० ३६.२४४. तथा देखिए-पृ० १०५, पा० टि० १. ३. उ० ३६.२१६-२१७, २४८. ४. वेमाणिया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया। कप्पोवगा य बोधव्वा कप्पाईया तहेव य ।। -उ० ३६.२०८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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