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३५६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तो उसी स्थान पर बैठे हुए उस उपसर्ग (आपत्ति) को सहन करना नषेधिकी परीषहजय है।'
११. शय्या परीषहजय-ऊंची-नीची शय्या ( शयन करने का स्थान ) के मिलने पर यह विचारते हुए कि एक रात्रि मेरा क्या कर लेगी, कर्त्तव्य का पालन करते रहना शय्या परीषहजय है ।२
१२. आक्रोश परीषहजय-दारुण कण्टक के समान मर्म-भेदक कठोर वचनों को सुनकर भी चुप रहना तथा उसके प्रति थोड़ा भी . क्रोध न करना आक्रोश परीषहजय है।
१३. वध परीषहजय-किसी के मारने (प्राणघात) को तत्पर होने पर भी यह सोचकर कि इस जीव का कभी विनाश नहीं होता है तथा क्षमा सबसे बड़ा धर्म है, मारनेवाले पर मन से भी द्वेष न करते हुए धर्म का ही चिन्तन करना वध परीषहजय है।'
१४. याचना परीषहजय-साध के पास जो भी वस्तुएँ होती हैं वे सब गृहस्थ से मांगी हुई होती हैं। उसके पास बिना मांगी हुई अपनी कोई भी वस्तु नहीं होती है। अतः 'गृहस्थों से प्रतिदिन १. अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ।।
-उ० २.२०.. तथा देखिए-उ० २.२१; २१.२२. २. उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं ।
-उ० २.२२. किमेगराई करिस्सइ एवं तत्थऽहियासए ।
-उ० २.२३. तथा देखिए-उ० १६.३२. ३. अक्कोसेज्जा परे भिक्खु न तेसि पडिसंजले ।
-उ० २.२४. तथा देखिए-उ० २.२५; १२.३१-३३,१६.३२,८४; २१.२० आदि । ४. हओ न संजले भिक्खू ।
-उ०२.२६. तथा देखिए-उ० २.२७;१६.३३.
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