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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५५ दिगम्बर )।' ऐसी स्थिति में ही वस्त्ररहित या वस्त्रसहित उभय अवस्थाओं में यह परीषह सम्भव है।
७. अरति परीषहजय-ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु साधुवृत्ति से उदास हो सकता है। अतः इस उदासी को न होने देना तथा धर्म का पालन करते रहना अरति परीषहजय है ।२ इस तरह अरति से तात्पर्य है-साधुवृत्ति में अरुचि उत्पन्न होना और उस अरुचि को उत्पन्न न होने देना अरति परीषहजय है।
८. स्त्री परीषहजय-स्त्री आदि को देखकर कामविह्वल न होना स्त्री परीषहजय है। यहां 'स्त्री' शब्द कामवासना का उपलक्षण है। अतः पुरुष को देखकर साध्वी का कामविह्वल न होना भी स्त्री परीषहजय है। रथनेमी राजीमती को एकान्त में नग्न देखकर तथा स्त्री परीषह से पराजित होकर जब कामविह्वल हो जाते हैं तब राजीमती उन्हें सदुपदेश द्वारा सन्मार्ग में स्थित करती है। इसके बाद दोनों संयम में स्थित होकर स्त्री परीषहजय करते हैं।
६. चर्या परीषहजय-यहां चर्या शब्द का अर्थ है-गमन । अतः किसी गृहस्थ या ग्रहादि में आसक्ति न करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते समय उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना चर्या परीषहजय है।"
१०. नैधिकी परीषहजय-श्मशान, शून्यगृह, वृक्षमूल आदि स्थानों में ध्यानस्थ बैठे रहने पर यदि कोई कष्ट या भयादि हो
१. इत्थं स्थविरकल्पिकमाश्रित्याचेलकपरीषह उक्तः........।
-वही, नेमिचन्द्रवृत्ति, पृ० २२. २. उ० २.१४-१५. ३. संगो एस मणस्साणं जाओ लोगम्मि इथिओ । जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं ॥
-उ० २.१६. तथा देखिए-उ० २.१७. ४. उ० २१.२१. ५. उ० २.१८-१६.
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