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३५४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . न रहने पर भी अग्नि आदि के सेवन का चिन्तन न करते हुए तज्जन्य कष्ट को सहन करना शीत परीषहजय है।'
४. उष्ण परीषहजय-इसे आतप ( धूप ) परीषहजय भी कहा गया है। गर्मी अथवा अग्नि से अत्यन्त परिताप को प्राप्त होने पर भी स्नान करना, मुख को पानी से सींचना, पंखा झलना आदि परिताप-निवारक उपायों के द्वारा शान्ति की अभिलाषा न करना उष्ण परीषहजय है।
५. दंशमशक परीषहजय-दंशमशक आदि ( सांप, बिच्छ, मच्छड़ आदि ) जन्तुओं के द्वारा काटे जाने पर भी संग्राम में आगे रहनेवाले हस्ती की तरह अडिग रहकर उन रुधिर और मांस खानेवालों कों द्वेष-बुद्धि के कारण न तो हटाना और न पीड़ित करना दंशमशक परीषहजय है।
६. अचेल परीषहजय-वस्त्ररहित या अल्प वस्त्रसहित हो जाने पर किसी प्रकार की चिन्ता न करना अचेल परीषहजय है। यहां पर वस्त्रसहित और वस्त्ररहित दोनों अवस्थाओं में अचेल परीषह बतलाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि साधु दो प्रकार के होते थे-एक वह जो वस्त्र धारण करते थे (स्थविरकल्पी या श्वेताम्बर) और दूसरे वह जो वस्त्र से रहित होते थे ( जिनकल्पी या १. चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खू न चिंतए ।
-उ०२.६-७. तथा देखिए-उ० १६.३२. २. घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए ।
-उ०२८. तथा देखिए-उ० २.६; १६.३२, ३. पुट्ठो य दंसमसएहिं समरे व महामुणी ।
-उ० २.१०. तथा देखिए-उ० २.११; १६.३२. ४. देखिए -पृ० ३२, पा० टि० २.
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