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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
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को 'हज' कहते हैं और जो इन पर विजय प्राप्त कर लेता है वह संसार में भ्रमण नहीं करता है । "
परीषहजय के भेद व स्वरूप :
यद्यपि इन परीषहों की संख्या अनन्त हो सकती है परन्तु ग्रन्थ में इन्हें बाईस भागों में विभक्त किया गया है । इनसे पीड़ित होकर धर्मच्युत न होना परीषहजय है । वे बाईस परीषहजय इस प्रकार हैं : २
१. क्षुधा परीषहजय - भूख से व्याकुल होने पर तथा शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी क्षुधा की शान्ति के लिए न तो फलादि को स्वयं तोड़ना, न दूसरे से तुड़वाना, न पकाना और न दूसरे से पकवाना अपितु क्षुधाजन्य कष्ट को सब प्रकार से सहन करना क्षुधा परीषहजय है । 3
२. तृषा परीषहजय - प्यास से मुख के सूख जाने पर तथा निर्जनस्थान के होने पर भी शीतल ( सचित्त ) जल का सेवन न करके अचित्त जल की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना तृषा परीषहजय है।४
३. शीत परीषहजय - ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यदि शीतजन्य कष्ट होने लगे तो शीतनिवारक स्थान एवं वस्त्रादि के
१ दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहइ निच्च से न अच्छइ मंडले ||
Paatar सबले बाबीसाए परीसहे ।
भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मंडले ||
२. इमे खलु ते बावीसं परीसहा सापरीस हे "
—उ० ३१.५.
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-उ० ३१.१५.
"तं जहा - दिगिछापरीस हे पिवा -
"अन्नाणपरीस हे दंसणपरीसहे ।
- उ० २.३-४ (गद्य).
३. देखिए - पृ० ३५२, पा० टि० ३; उ० २.२; १६.३२. ४. सीओदगं न सेवेज्जा वियडस्सेसणं चरे ।
- उ० २.४.
तथा देखिए - उ० २.५.
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