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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
हैं । ये तप आत्मशक्तियों के विकास एवं विशुद्धि की परख के लिए कसौटीरूप भी हैं । इनसे स्वर्ग या संसार से पूर्ण निवृत्तिरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस तरह इन तपों का कर्मों को बलात् उदय में लाकर निर्जीर्ण करने में तथा संसार से मुक्ति दिलाने में प्रमुख हाथ होने से इनका चारित्र से पृथक् कथन किया गया है । तप की सफलता के लिए आवश्यक है कि शरीर के सूख जाने पर भी तपश्चरण से विचलित न होवे तथा तप के फल की इच्छा भी न करे | 3
परीषह जय
साधु को अपनी साधना के पथ में नाना प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ता है क्योंकि उसका सम्पूर्ण जीवन तपोमय है तथा तप की सफलता कष्टों को सहन किए बिना संभव नहीं है । सांसारिक विषयों में आसक्ति होना ही इन कष्टों का कारण है तथा सांसारिक विषयभोगों से निरासक्ति कष्टों पर विजय है । ये कष्ट मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत या देवकृत हो सकते हैं । इन कष्टों से न घबड़ाना ही साधु का कर्त्तव्य है । साधु मुख्यरूप से जिन क्षुधादि कष्टों को सहन करता है उन्हें ग्रन्थ में 'परीषह' शब्द से कहा गया है । परीषह के ही अर्थ में ' उपसर्ग' शब्द का भी प्रयोग मिलता है । इन कष्टों ( उपसर्ग एवं परीषह ) को जीतने
१. उ० १२.३६-३७.
२. एवं तवं तु दुविह जे सम्मं आयरे मुणी । सोप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चड़ पंडिओ |
३. कालीपव्वंग संका से किसे धमणिसंतए । मायने असणपाणस्स अदीणमणसो चरे ॥
- उ० ३०.३७.
- उ० २.३०
४. जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिञ्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो
पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा |
तथा देखिए - उ० २१.१८,२०
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- उ० २.१-३ (गद्य).
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