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________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५१ को गिनाया गया है। यहां पर इसका पृथक् कथन विशेष जोर देने के लिए किया गया है। इस तरह इन सभी आभ्यन्तर तप के भेदों में ऐसा कोई भी तप नहीं है जिसे साधु किसी न किसी रूप में प्रतिदिन न करता हो । इन आभ्यन्तर तपों की क्रमरूपता का यदि विचार किया जाए तो विनय तप के पहले वैयावत्य तप तथा ध्यान के पहले व्युत्सर्ग तप आना चाहिए। वैयावत्य तप से विनय की प्राप्ति होती है तथा विनय तप में वैयावत्य तप आ ही जाता है। इसी प्रकार ध्यान तप में कायोत्सर्ग हो ही जाता है क्योंकि बिना कायोत्सर्ग के ध्यान संभव ही नहीं है। इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग निषेधात्मक है जबकि ध्यान विधानात्मक है। विनय, वैयावृत्य और स्वाध्यायं विशेषकर ज्ञान की प्राप्ति से सम्बन्धित हैं। प्रायश्चित्त आचारगत दोषों की शुद्धि से तथा कायोत्सर्ग और ध्यान तप मन, वचन व काय की प्रवृत्ति की स्थिरता से सम्बन्धित हैं। ___ इस तरह इन बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपों का वर्णन किया गया। योगदर्शन तथा बौद्धदर्शन में भी इन तपों ( विशेषकर ध्यान ) का समाधि के रूप में वर्णन मिलता है।' प्रकृत ग्रन्थ में तप का मुख्य प्रयोजन ( फल ) पूर्वसंचित सैकड़ों भवों में भोगे जानेवाले कर्मों को आत्मा से पृथक (निर्जीणं) करना है। इसके अतिरिक्त तप साधु जीवन की एक सम्पत्ति है।२ तप से ऋद्धि आदि की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त तपस्वी की सेवा करने में देवता भी अपना अहोभाग्य समझते १. विशेष के लिए देखिए-विसुद्धिमग्ग, परिच्छेद ३, ४, ११; पातञ्जल योगदर्शन तथा इसी प्रकरण का अनुशीलन । २. विरत्तकामाण तवोधणाणं । -उ० १३.१७. ३. इड्ढी वावि तवस्सिणो। -उ० २. ४४. तथा देखिए-उ० १२.३७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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