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________________ ३५० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन क्रिया के भी शान्त हो जाने पर जो पूर्ण निश्चल अवस्था की प्राप्ति होती है उसे समुच्छिन्न कियाऽनिवृत्ति ध्यान कहते हैं । इस अवस्था की प्राप्ति के बाद पुन: संसार में आवागमन नहीं होता है । इस अवस्था की स्थिति अ, इ, उ, ऋ एवं लृ इन पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारणप्रमाण मानी है । इसके बाद अवशिष्ट सभी अघातिया कर्मों को नष्ट करके जीव मुक्त हो जाता है ।" यह ध्यान की सर्वोच्च एवं अन्तिम अवस्था है । इन चार प्रकार के शुक्लध्यानों में प्रथम दो ध्यान आलम्बनसहित होने से श्रुतज्ञानधारी ( पूर्वधर ) के होते हैं तथा बाद के दो ध्यान आलम्बनरहित होने से केवलज्ञानी जीवन्मुक्तों के होते हैं । इस तरह इन प्रमुख चार प्रकार के ध्यानों में आर्त और रौद्र ध्यान मुक्ति में साधक न होने से त्याज्य हैं तथा धर्म और शुक्ल ध्यान उपादेय हैं । धर्मध्यान का प्रयोजन शुक्लध्यान की अवस्था को प्राप्त कराना है । ग्रन्थ में साधु की दिन एवं रात्रिचर्या के आठ प्रहरों में से दो प्रहर धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों को दृष्टि में रखकर ही निश्चित किए गए हैं। एकाग्रमनः सन्निवेश ( मन को एकाग्र करना ), मनः समाधारण, मनोगुप्ति आदि सभी इसी ध्यान की प्राप्ति के प्रति कारण हैं । " ६. कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग तप : शयन करने, बैठने और खड़े रहने के समय शरीर को इधर-उधर न हिलाकर स्थिर रखना कायोत्सर्ग तप है | 3 साधु सामान्यतौर से व्युत्सृष्टकाय ( शरीर से ममत्वरहित ) होकर ही विहार करते हैं । छः आवश्यकों में कायोत्सर्ग एक आवश्यक ( नित्यकर्म ) भी है । प्रायश्चित्त तप के भेदों में भी कायोत्सर्ग १. उ० २६.७१, ४१. २. देखिए -- प्रकरण ४, मनोगुप्ति । ३. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे | atra विग्गो छट्टो सो परिवित्तिओ ॥ ४. उ० ३५.१५, Jain Education International - उ० ३०.३६. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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