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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
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आहारादि मांगने की अपेक्षा घर में रहना अच्छा है' इस प्रकार याचनाजन्य दीनता के भाव न आने देना याचना परीषहजय है।'
१५. अलाभ परीषहजय-आहारादि की याचना करने पर कभीकभी उनकी प्राप्ति नहीं होती है। अतः आहारादि की प्राप्ति न होने पर दुःखी न होते हुए यह सोचना-'आज भिक्षा नहीं मिली, कल मिल जाएगी' अलाभ परीषहजय है । २
१६. रोग परीषहजय-शरीर में किसी प्रकार के रोगादि के हो जाने पर औषधिसेवन (चिकित्सा) न करते हुए समतापूर्वक रोगजन्य कष्ट को सहन करना रोग परीषह जय है । मृगापुत्र साध के इस परीषहजय के विषय में मृग का दृष्टान्त देता है'जिस प्रकार मृग को रोगादि हो जाने पर उसकी कोई दवा आदि से सेवा नहीं करता है और कुछ समय बाद वह रोग के दूर हो जाने पर अन्यत्र विचरण कर जाता है उसी प्रकार साध को रोगादि के होने पर औषधि की कामना नहीं करनी चाहिए।४ ।
१७. तृणस्पर्श परीषहजय-तृणों पर शयन करते समय अचेल साध का शरीर विकृत हो सकता है। अत: ऐसी अवस्था में भी वस्त्रादि की अभिलाषा न करना तृणस्पर्श परीषहजय है।५ १. गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासुत्ति इइ भिक्खू न चिंतए ।।
-उ० २.२६. तथा देखिए-उ० २.२८; १६ ३३. २. अज्जेवाहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया । जो एवं पडिसंचिक्खे अलाभो तं न तज्जए ।
-उ०२.३१. तथा देखिए-उ० २.३०; १६.३३. ३. तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा संचिक्खऽत्तगवेसए ।
-उ० २.३३. तथा देखिए-उ० २ ३२; १५.८. ४. उ० १६.७६-७७. ५. एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं तणतज्जिया।
-उ० २.३५. तथा देखिए-उ० २.३४; १६.३२.
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