SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सामर्थ्य भी है । एक भी मुक्त-जीव ऐसा स्वीकार नहीं किया गया है जो बिना पुरुषार्थ किए ही नित्य मुक्त हो। यद्यपि अनादिकाल से मुक्तजीवों की सत्ता है परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वे पुरुषार्थ के बिना ही मुक्त हो गए हों। इसीलिए प्रत्येक जीव में परमात्मा बनने की शक्ति को स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त जीवों की संख्या भी अनन्त स्वीकार की गई है। चैतन्य के विकास के आधार से किया गया जीवों का विभाजन बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह विभाजन. बहत कुछ अंशों में पाश्चात्यदर्शन के लीब्नीज के 'जीवाणवाद' और वर्गसां के रचनात्मक विकासवाद से मिलता-जुलता है।' उत्तराध्ययन में कुछ वनस्पतियाँ ऐसी भी स्वीकार की गई हैं जिनमें कई जीव एक साथ रहते हैं। ऐसे जीवों का शरीर एक ही होता है और सबकी क्रियाएँ एक साथ होती हैं। इनके अतिरिक्त जो सूक्ष्म जीव हैं वे किसी भी अवरोध से रुकते नहीं है और सर्वलोक में व्याप्त हैं। जीवों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के अजीव बतलाए गए हैं उनमें पुद्गल का वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक भी है। 'शब्द' को पुद्गल की पर्याय स्वीकार करने तथा 'वायू' आदि को रूपादि गुणों से युक्त मानने से पुदगल-विषयक बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है। . ३. यथार्थवाद का चित्रण होने से द्रव्य का स्वरूप भी एकान्ततः नित्य या अनित्य स्वीकार न करके अनित्यता से अनुस्यूत नित्य माना गया है। अनुभव में भी आता है कि द्रव्य में प्रतिक्षण कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य हो रहे हैं और इन परिवर्तनों के होते रहने पर भी उसमें कुछ ऐसे तथ्य मौजूद हैं जिनके कारण हम यह कहते हैं कि यह वही है जिसे हमने कल देखा था। अतः इस परिवर्तन के होने पर भी द्रव्य का कभी भी सर्वथा अभाव नहीं होता है क्योंकि वह किसी न किसी रूप में रहता अवश्य है । परिवर्तन द्रव्य की किसी पर्याय-विशेष का होता है, स्वतः द्रव्य का नहीं । अतः द्रव्य का स्वरूप भी ऐसा ही माना गया है जिससे दोनों (नित्यानित्य) दृष्टिकोणों का समन्वय हो सके । १. भा० द० रा०, पृ० ३३४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy