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प्रकरण १ : द्रव्य- विचार
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इसके लिए यह भी आवश्यक था कि द्रव्य को कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य स्वीकार किया जाए। इस तरह द्रव्य के विषय में वर्तमान नित्यानित्य सम्बन्धी विवादों का समन्वय किया गया । नित्यता द्रव्य का स्वभावसिद्ध धर्म है और अनित्यता उसकी उपाधि । शायद इसीलिए ग्रन्थ में द्रव्य के लक्षण में साक्षात् पर्यायांश को ग्रहण न करके गुणांश मात्र को ग्रहण किया गया है तथा परवर्ती काल में द्रव्य का स्वरूप निश्चयनय ( द्रव्यार्थिक नय) की अपेक्षा से नित्य और व्यवहारनय (पर्यायार्थिक नय ) की अपेक्षा से अनित्य माना गया है।' यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वेदान्तदर्शन में मानी गई परमार्थ -सत्ता और व्यवहार-सत्ता के दृष्टिकोण से द्रव्य के नित्यानित्यत्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है क्योंकि वेदान्तदर्शन में परमार्थसत्ता यथार्थ - भूत है और व्यवहारसत्ता अयथार्थभूत । जबकि यहाँ पर जितना द्रव्यांश सत्य है उतना ही पर्यायांश भी सत्य है । पर्याएं द्रव्य की उपाधि हैं जो प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं । इनके परिवर्तित होते रहने पर भी द्रव्य सर्वथा अक्षुण्ण बना रहता हो सो भी बात नहीं है क्योंकि जब पर्याएँ द्रव्य से सर्वथा पृथक नहीं हैं तो फिर पर्यायों के परिवर्तित होने पर द्रव्य में कूटस्थ नित्यता बनी रहे यह कैसे सम्भव है ? फिर भी जो द्रव्य को नित्य कहा गया है वह अपने सत्तारूप गुण का अभाव न होना है। इस परिवर्तन के होते रहने पर भी सत्ता को अक्षुण्ण स्वीकार करने के कारण ही बौद्धों के क्षणिकवाद के दोषों का प्रसंग नहीं आता है ।
इस तरह उपर्युक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन यथार्थवाद की नींव पर ग्रन्थ में किया गया है । यह संसार जो हमें दिखलाई पड़ रहा है वह उतना ही सत्य है जितना हमें अनुभव में आता है । इसके अतिरिक्त इस सृष्टि का स्रोत न तो उपनिषदों की
१. उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो ।
. विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ||
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- पंचास्तिकाय, गाथा ११.
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