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२३२१] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तरह असर्वज्ञ (छदमस्थ-जो पूर्ण ज्ञानी नहीं है) भी स्वीकार किया गया है।' इस चारित्र का धारी जिनोपदिष्ट चारित्र का उसी रूप में पालन करता है जैसा उन्होंने कहा है। अतः इसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह पूर्ण वीतरागता की अवस्था है। इस यथाख्यातचारित्र की पूर्णता होने पर (चरमावस्था में) सब कर्म नष्ट हो जाते हैं और तब साधक सब प्रकार के दुःखों का अन्त करके सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता है । ___ इस तरह सदाचार के इन भेदों को देखने से प्रतीत होता है कि ये क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। यह सदाचार अहिंसा की भावना से प्रारम्भ होकर पूर्ण वीतरागता की अवस्था में पूर्ण हो जाता है। इन सदाचार के भेदों में संसार के विषयों के प्रति राग की भावना उत्त
रोत्तर कम होती गई है। वीतरागता को सदाचार की पराकाष्ठा स्वीकार करने के कारण 'राग' की हीनाधिकता को लेकर यह चारित्र का विभाजन किया गया है।
जैनदर्शन में राग की होनाधिकता को लेकर अन्य प्रकार से भी जीव की १४ अवस्थाएँ (गुणस्थान) बतलाई गई हैं जिनमें जीव के निम्नतम आचार से लेकर उच्चतम आचार तक के विकास-क्रम को आध्यात्मिक-प्रक्रिया के द्वारा समझाया गया है। जिसे संसार के विषयों में सबसे अधिक राग है वह सबसे निम्नदर्जेवाला व्यक्ति है और जिसे संसार के विषयों में सबसे कम राग (या राग का अभाव) है वह सबसे उच्चदर्जेवाला व्यक्ति है। सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र से ये अवस्थाएँ सर्वथा भिन्न नहीं हैं अपितु उनका ही यहाँ १४ अवस्थाओं में विस्तार किया गया है। इनमें यही बतलाया गया है कि जीव किस प्रकार धीरे१. देखिए-पृ० २३०, पा० टि० १. २. चारित्तपज्जवे विसोहिता अहक्खाय चरित्तं विसोहेइ। अहक्खायरित्तं
विसोहित्ता चत्तारि कम्मसे खवेइ । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वयाइ, सम्वदुक्खाणमंतं करेइ ।
-उ० २६. ५८. तथा देखिए-उ० ३१. १; पृ० २२६, पा० टि० २.
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