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प्रकरण द
उपसंहार
उत्तराध्ययन सूत्र अर्ध-मागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक धार्मिक काव्य ग्रन्थ है । यह किसी एक व्यक्ति की किसी एक काल रचना नहीं है अपितु इसमें मुख्यतः भगवान् महावीर-परिनिर्वाण के समय दिए गए उपदेशों का विभिन्न समयों में किया गया संकलन है । भगवान् महावीर के शिष्यों ने उनके जिस उपदेश को ग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया वे अंग और अंगबाह्य आगम ( श्रुत) कहे जाते हैं । इनमें से जो साक्षात् महावीर के शिष्यों (गणधरों) के द्वारा रचित हैं वे अंग और जो तदुत्तरवर्ती पूर्वाचार्यो ( श्रुतज्ञों ) के द्वारा रचित हैं वे अंगबाह्य कहलाते हैं । इनमें अंग-ग्रन्थों का प्राधान्य है । उत्तराध्ययन उपांग मूलसूत्र आदि अंगबाह्य के भेदों में से मूलसूत्र विभाग में आता है । यद्यपि मूलसूत्र शब्द का अर्थ विवादास्पद है परन्तु उत्तराध्ययन प्राचीनता, आदि सभी दृष्टियों से मूलसूत्र कहे जाने के योग्य है । उत्तराध्ययनयद्यपि अंगबाह्य ग्रन्थों में आता है तथापि यह अंगग्रन्थों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । भाषा और विषय की प्राचीनता की दृष्टि से अंग और अंगबाह्य समस्त आगम ग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान है । मौलिकता, मूलरूपता तथा विषय प्रतिपादनशैली की सुबोधता आदि के कारण यह चारों मूलसूत्रों में अग्रगण्य है । . विन्टरनित्स आदि विद्वानों ने इसकी तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, जातक, महाभारत तथा अन्य ग्रन्थों से की है । इसी महत्त्व के कारण कालान्तर में इस पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया तथा वर्तमान में भी लिखा जा रहा है ।
मूलरूपता, मौलिकता
दिगम्बर- परम्परा में भी उत्तराध्ययन का यद्यपि सविशेष उल्लेख मिलता है परन्तु वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन को वे अन्य आगम ग्रन्थों की ही तरह प्रामाणिक नहीं मानते हैं । इसे प्रामाणिक न मानने का मुख्य कारण है - इसमें प्रतिपादित साधु के
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