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________________ १०८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन .. मनुष्य-मध्यलोक के २३ द्वीपप्रमाण मनुष्य-क्षेत्र में निवास करने वाली मानवजाति इस कोटि में आती है । इसके सुखादि वैभव को यद्यपि देवों के वैभव की अपेक्षा अनन्तगुणा हीन बतलाया गया है। फिर भी सभी संसारी जीवों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा चार दुर्लभ अङ्गों की प्राप्ति में मनुष्यजन्म भी एक है ।२ मोक्ष, जोकि प्रत्येक जीव का चरम लक्ष्य है, को मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है। मनुष्य-पर्याय की प्राप्ति पुण्यकर्म विशेष से होती है। ग्रन्थ में उत्पत्ति-स्थान की अपेक्षा से मनुष्यों के तिर्यञ्चों, . की तरह सम्मूच्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) ये दो भेद किये गए हैं। इसके बाद दोनों प्रकार के जीवों के कर्मभूमि, अकर्मभूमि तथा अन्तरद्वीप के क्षेत्रों (१५+३०+२८ = ७३) में १. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिग्विया ।। -उ० ७.१२. जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे । एवं माणस्सगा कामा देवकामाण अंतिए ।।। -उ० ७.२३. तथा देखिए - उ० ७.२४. चत्तरि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्त सुइ सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। -उ० ३.१. दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । -उ०१०.४. तथा देखिए-उ० १०.१६. ३. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुत्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ।। -उ० ३.७. तथा देखिए-उ० ३.६,२०; २०.११; २२.३८. ४. मणुया दुविहभेया उ ते मे कित्तयओ सुण । संमुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कं तिया तहा ।। -उ० ३६.१६४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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