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________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [३७६ अवस्था को शुद्ध ज्ञान एवं दर्शनरूप कहा गया है। यहाँ 'दर्शन' का अर्थ 'श्रद्धा' नहीं है जैसाकि याकोबी ने अपने अनुवाद में लिखा है।' अपितु दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से प्रकट होनेवाला सामान्यबोधरूप आत्मा का स्वाभाविक गुण है। 'श्रद्धा' दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाला गुण है जो मोहाभावरूप है। कर्मों का पूर्ण अभाव हो जाने से तज्जन्य शरीर, जरा-व्याधि, रूप, दु:ख, वृद्धि-ह्रास आदि कुछ भी नहीं रहता है क्योंकि ये सब कर्मों के सम्पर्क से होते हैं। भौतिकशरीर एवं रूपादि के न होने पर भी जीव का अभाव नहीं हो जाता है । अतः उसे घनरूप कहा गया है। घनरूप कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष अभावरूप नहीं है अपितु भावात्मक है। मुक्त होने के पूर्व जीव जिस शरीर से युक्त होता है उस शरीर का जितना आकार (ऊंचाई एवं चौड़ाई) होता है उससे तृतीयभाग न्यून (ऊँचाई आदि का) विस्तार (अवगाहना) सभी मुक्त जीवों का होता है क्योंकि शरीर न होने से मुक्तावस्था में नासिका आदि के छिद्रभाग घनरूप हो जाते हैं। शरीर-प्रमाण-जीव के स्वरूप के प्रसंग में बतलाया गया था कि जीव जैसा शरीर का आकार प्राप्त करता है उसी के अनुसार संकोच एवं विस्तार को प्राप्त कर लेता है। अत: यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि तब तो मुक्त जीवों के कोई शरीर न होने से आत्मप्रदेशों को या तो सघन होकर अणुरूप हो जाना चाहिए या सर्वत्र फैल जाना चाहिए, फिर क्या कारण है कि मुक्तात्माओं . का विस्तार पूर्वजन्म के शरीर की अपेक्षा तृतीयभाग न्यून बतलाया गया है ? इसका कारण यह है कि संसारावस्था में जीव को शरीर-प्रमाण माना गया है, न अणुरूप और न व्यापक । अतः आवश्यक हो जाता है कि मुक्तावस्था में भी जीव को सर्वथा अणरूप या व्यापक न मानकर कुछ विस्तारवाला माना जाए। १. उ० ३६.६६-६७ (से० बु० ई०, भाग-४५). २. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ । तिभागहीणो तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ -उ० ३६.६४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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