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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
१०. अव्याबाध' – सब प्रकार की बाधाओं से रहित होने से तथा अत्यन्त सुखरूप होने से इसे 'अव्याबाध' कहा गया है । ११. लोकोत्तमोत्तम २ - तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ होने से इसे लोकोत्तमोत्तम कहा गया है ।
मोक्ष में जीव की अवस्था :
मुक्ति की अवस्था जरा - मरण से रहित, व्याधि से रहित, शरीर से रहित, अत्यन्त दुःखाभावरूप, निरतिशय सुखरूप, 'शांन्त, क्षेमकर, शिवरूप, घनरूप, वृद्धि - ह्रास से रहित, अविनश्वर, ज्ञानरूप, दर्शनरूप ( सामान्यबोध ), पुनर्जन्मरहित तथा एकान्त अधिष्ठानरूप है | 3
इस मुक्तावस्था को प्राप्त आत्मा स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेने के कारण परमात्मा बन जाती है । आत्मा और परमात्मा में भेद मिट जाता है । दोनों समान स्थितिवाले होकरके पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं, अद्वैत वेदान्त की तरह एकरूप नहीं हो जाते हैं । ज्ञान और दर्शनरूप चेतना जो कि जीव का स्वरूप है उसका अभाव नहीं होता है क्योंकि ऐसा होने पर जीवपने का ही अभाव हो जाएगा और सत् द्रव्य का भी विनाश होने लगेगा | अतः इस
९. वही ; उ० २६.३.
२. लोगुत्तमुत्तमं ठाणं ।
- उ० ६.५८.
तथा देखिए- उ० २०.५२.
३. अरुविण जीवघणा नाणदंसणसन्निया ।
अउलं सुहंसंवत्ता उवमा जस्स नत्थि उ ॥
तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंत करे ।
- उ० २६.२८.
एत अहिडिओ भवं ।
— • ३६.६६
- उ० ६.४.
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तथा देखिए - उ० २६.४१, ५८, पृ० ३७७, पा० टि० ३.
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