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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
[३६७ इस प्रकार के समाधिमरण से विपरीत जो मरण धन एवं स्त्रियों में मच्छित होकर हिंसादि पाप-क्रियाओं को करते हए होता है उसे 'बालमरण' या 'अकाममरण' (अनिच्छापूर्वक मरण) कहा गया है । यह मरण जीवों को कई बार प्राप्त होता है क्योंकि इस प्रकार के मरण को प्राप्त करनेवाले जीव गड्डलिकाप्रवाह (जिधर अधिक लोग जाएं उसी तरफ बिना सोचे-समझे चल पड़ना ) से प्रभावित होकर मिट्टी को एकत्रित करनेवाले शिशुनाग की तरह कर्म-मलों का संग्रह करते हैं।' पश्चात् मृत्यु के समय अपने बुरे-कर्मों के फल को स्मरण करके दुःखी होते हैं । अतः इस प्रकार का अकाम-मरण त्याज्य है। ___ इन तरह यह समाधिमरण या सल्लेखना साधनापथ का चरम केन्द्र -बिन्दु है । यदि साधक इसमें सफल हो जाता है तो वह अपनी सम्पूर्ण साधना का अभीष्टफल प्राप्त कर लेता है अन्यथा वह संसार में भटकता रहता है। समाधिमरण में मृत्यु के समय संसार के सभी विषयों से पूर्ण-विरक्ति आवश्यक है। अतः उस समय आहार आदि सभी क्रियाओं को त्याग दिया जाता है । इस समय साधक को न तो जीवन की आकांक्षा रहती है और न मृत्यु की कामना ही रहती है। इस प्रकार के मरण में शरीर एवं कषायों के कृश किए जाने से इसे 'सल्लेखना', विद्वानों से प्रशंसित होने से 'पण्डितमरण' तथा प्रसन्नता
पूर्वक स्वीकार करने से 'सकाम-मरण' कहा गया है। अन्यत्र इसे - - संथारा (संस्तारक) शब्द से भी कहा गया है क्योंकि इसमें एकान्त
स्थान में तण-शय्या ( संस्तारक ) विछाकर तथा आहारादि का त्याग करके आत्मध्यान किया जाता है। इसके विपरीत अज्ञानियों की अनिच्छापूर्वक होनेवाली मृत्यु 'बालमरण' तथा 'अकाम-मरण' कहलाती है। १. उ० ५.५-७, ६-१०; पृ० ३६६, पा० टि० १. २. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥
-उ० ५.१४. तथा देखिए-उ० ५.१५-१६. ३. जैन आचार-डा० मोहनलाल मेहता, पृ० १२०.
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